दक्षिण भारतीय आमों के साथ दशहरी की दस्तक

                                                                     


                                                                        डॉ शैलेंद्र राजन 
                                                                         निदेशक
                                                            केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान,


                                                                     रहमानखेड़ा, लखनऊ


                                                     


उत्तर भारतीय आमों का सीजन अभी शुरू नहीं हुआ लेकिन दक्षिण भारतीय आम आकर अपना पैर जमाने लगे हैं| ऐसा आमतौर पर हर साल होता है कि आंध्र प्रदेश का बंगनापल्ली जिसे सफेदा भी कहते हैं मार्केट में बहुत मार्च अप्रैल मे ही आने लगता है और मिल्क शेक और दूसरे व्यंजनों में लोग इसका इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं | अधिक लाभ कमाने के चक्कर में दक्षिण भारत के किसान इसे बहुत जल्दी तोड़ देते हैं और गुणवत्ता पर ध्यान ना नहीं देते हैं| फलस्वरूप फलों को खाने के बजाय आम के स्वाद का स्वाद लेने के लिए लोग इसे मिल्कशेक और दूसरे व्यंजनों में मिलाकर प्रयोग में लाते हैं धीरे-धीरे समय के साथ सफेदा आम भी गुणवत्ता वाला हो जाता है| देखने में तो आकर्षक है और फलों के टिकाऊ होने के कारण काफी दिनों तक रखा जा सकता है|


इस वर्ष कोरोना के कारण उत्तर भारतीय बाजारों में आम की मांग कम तो थी ही साथ ही साथ दक्षिण भारत के बागों में आम की पैदावार भी कम थी| आंध्राप्रदेश में तो कई स्थानो पर कुल उत्पादन का केवल 25% ही आम था| इन दोनों कारणों से उत्तर भारतीयों को दक्षिण भारती आमों को ठीक से चखने का मौका नहीं मिला|  कोरोना वायरस के डर के मारे आम खाने की किसको फुर्सत थी| अब थोड़ा लोग संभले हैं तो आम भी अपने पैर बाज़ार मे जमाने लगा है| कुछ ही दिनों में आम के ठेले गलियों में दिखने लगेंगे|


बंगनापल्ली के अतिरिक्त, मार्केट में बहुत ही आकर्षक लाल रंग के कारण स्वर्णरेखा आम की भी काफी मांग रहती है| देखने में यह आम खूबसूरत है परंतु स्वाद रंग रूप के अनुरूप नहीं होता है| यह आम लखनऊ और दिल्ली के मार्केट में यह काफी मात्रा में आ चुका है| आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा के दक्षिणी भारत भागों से स्वर्णरेखा और बंगापल्ली दोनों की ही आवक उत्तर भारत के मार्केट में हर साल लगभग तय है| उत्तर भारतीयों को दशहरी  के मुकाबले दूर से दर्जे का स्वाद रखने वाले इन आमों को खाकर ही काम चलाना पड़ता है|


दशहरी, जिसका उत्तर भारत में ही दबदबा नहीं वरन इसे कई दक्षिण भारतीय किसानों ने भी उगाना शुरू कर दिया है| डॉ शैलेंद्र राजन, निदेशक, केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान ने बताया कि आंध्र प्रदेश में दशहरी की खेती के प्रति किसानों का रुझान बढ़ा है| संस्थान से हजारों पौधे किसानों को वहां पर उपलब्ध कराएं हें | हालांकि दशहरी का असली रंग रूप वहां देखने को नहीं मिलता है लेकिन फिर भी दशहरी का स्वाद तो दशहरी का ही है| आंध्र प्रदेश कर्नाटक महाराष्ट्र गुजरात और अन्य स्थानों पर दशहरी उगाने का मुख्य कारण इस किस्म की कई खासियत है| यद्यपि यहां पर दशहरी का आकार लखनऊ के मुकाबले बहुत छोटा होता है परंतु स्वाद में काफी समानता एवं लोगों में बढ़ती इसकी लोकप्रियता के कारण किसानो ने नए बागों में लगाना प्रारंभ कर दिया है| दशहरी  की उपज इन प्रदेशों में काफी अच्छी है जिसके कारण किसान उससे संतुष्ट है|


आंध्र प्रदेश में उत्पादित दशहरी पकने लगी है और उसका दिल्ली मार्केट लखनऊ के फलों से पहले आ जाना स्वाभाविक है| आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र उड़ीसा एवं गुजरात के बहुत से क्षेत्रों में दशहरी का उत्पादन होना शुरू हो गया है और यह सभी स्थान मार्केट में मई के पहले पखवाड़े में ही दशहरी उपलब्ध कराने की सामर्थ रखते हैं| आमतौर पर मलिहाबाद के किसान इस बात से आशंकित रहते हैं कि दशहरी उनके बाजार पर कब्जा ना जमाले| लेकिन डॉ राजन के अनुसार दक्षिण भारत का दशहरी उनके लिए एक अच्छा प्लेटफार्म तैयार करने की कोशिश कर रहा है| उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त कई प्रेदेशों में दशहरी के पैदा होने पर लोग उसके स्वाद से परिचित हो चुके हैं| इसका लाभ उत्तर भारत के असली दशहरी उत्पादकों को मिल सकता ha क्योंकि जब बेहतरीन दशहरी उत्तर भारत से वहां पहुंचेगा तो उसको वहाँ के बाज़ार में पैर जमाने में कोई कठिनाई नहीं होगी|


अभी तक देखा गया है कि दक्षिण भारतीय किसमें ही उत्तर भारत में ज्यादा लाभ कम आती हैं| सीजन के शुरुआत में मार्केट में आए आम को महंगे दाम पर भी खरीदने में किसी को कोई परेशानी नहीं होती है| ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग 1 साल बाद आम चखने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता| जैसे ही उत्तर भारत के बागों में आम तैयार हो जाता है दक्षिण भारतीय क़िस्मों का फल आना बंद हो जाता हैं और कई बार ऐसा उनकी फसल खत्म हो जाने के कारण भी होता है|


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