आई0पी0एम0 द्वारा टमाटर के फलबेधक कीट का नियन्त्रण
डाॅ0 शशांक शेखर सिंह
सहा0 प्राध्यापक/एस.एम.एस., के.जी.के. अमेठी
नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रो0 विश्व विद्यालय कुमारगंज अयोध्या
टमाटर में फलबेधक कीट का प्रकोप वानस्पतिक वृद्धि तथा फूल की अवस्था से प्रारम्भ हो जाता है। अधिकतर ये कीट पत्तियों की निचली सतह पर एक-एक अण्डे देते हैं जो कि आकार में छोटे व सफेद होते हैं। दो-तीन दिन में अण्डों से सूंडियां निकल आती हैं। सूंडियों का जीवनकाल 15-20 दिन होता है। छोटी सूडियां पत्तियों तथा फूलों को खाकर वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में नुकसान पहुंचाती हैं तदोपरान्त, फलों में छेद करके घुस जाती हैं। इसके प्यूपा या तो जमीन में या फिर ग्रसित फल के अन्दर बनते हैं। 7-10 दिन के बाद वयस्क कीट-प्यूपा से बाहर निकलते हैं। इस प्रकार पूरा जीवन चक्र 24-28 दिन में पूरा हो जाता है।
पारिस्थितिकी प्रणाली पर रासायनिक कीटनाशकों के बढ़ रहे विपरीत प्रभावों एवं इनकी बढ़ती जानकारी से ‘‘टिकाऊ खेती’’ के विचार को बेहतर रूप से स्वीकार किया गया है। आई.पी.एम. टिकाऊपन की ओर बढ़ता एक मुख्य कदम है। आई.पी.एम. की सभी तकनीकों को प्रयोग में लाकर इस तरह से फलबेधक कीट प्रबन्धन करना कि बेधक कीटों की संख्या निर्धारित आर्थिक परिसीमा स्तर से नीचे रहे, यही इस तकनीक/प्रणाली का उद्देश्य है। प्राकृतिक के जैसा कीट प्रबन्धन करने के लिए निम्नलिखित रणनीतियों को अपनाया जाना चाहिए।
शस्य प्रबन्धन
1. हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा (फलबेधक कीट) के प्रकोप को, टमाटर की अगेती बुआई करके, कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
2. गर्मियों के दौरान टमाटर बोये जाने वाले खेतों की गहरी जुताई कर, खुला छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से भूमि में उपस्थित हेलिकोवर्पा के प्यूपा ऊपर आ जाते हैं और धूप से नष्ट हो जाते हैं।
3. सूंडी से ग्रसित फल को सूुडी सहित निकाल कर नष्ट कर देने से, कीट का प्रकोप कम किया जा सकता है अर्थात् ग्रसित फल को खेत में न छोड़ें।
4. फसल को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। विशेषतः चटरी-मटरी खरपतवार को खेत से निकाल देना चाहिए।
5. पक्षी भी सूंडियों की संख्या कम करने में मददगार हैं। टमाटर के खेतों में प्रति हैक्टर 50 पक्षियों के बैठने के ठिकाने बनाये जाने चाहिए। जिससे परभक्षी पक्षी सूंडियों को खा सकें।
6. टमाटर की खेती के साथ-साथ गेंदे के पौधों का प्रयोग करके हेलिकोवर्पा के प्रकोप को कुछ प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। टमाटर की प्रत्येक 16 पंक्ति के बाद लम्बे प्रजाति के गेंदे का 1 पंक्ति की रोपाई टमाटर रोपाई के लगभग 15 दिन पहले करें। गेंदे के पीले फूलों की ओर आकर्षित होकर हेलिकोवर्पा उन पर अपने अण्डे दे देते हैं जिन्हें आसानी से नष्ट किया जा सकता है।
फिरोमोन ट्रैप (गंधपाश) का प्रयोग फेरोमोन बाह्य हार्मोन हैं जो कि कीट अपने शरीर से निकालते हैं। ये अपनी सुगन्ध से विपरीत लिंग के कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। गंघपाश का उपयोग फलबेधक के नियन्त्रण हेतु दो कारणों से किया जा सकता है।
1. फलबेधक के वयस्क पतंगों की निगरानी/आगमन का पता करने के लिए 50 मीटर के फासले पर 5 फेरोमोन ट्रैप प्रति हैक्टर की दर से लगाकर, इनकी संख्या का आकलन कर, समयानुसार ट्राइकोकार्ड एवं एन.पी.वी. के प्रयोग को सुनिश्चित किया जा सकता है।
2. फलबेधक के वयस्कों को पकड़ कर नष्ट करने हेतु 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हैक्टर की दर से लगाये जा सकते हैं। ट्रैप में नर पतंगे आकर्षित होकर फंस जाते हैं जिन्हें नष्ट करके, इनकी वंश वृद्धि को रोका जा सकता है।
जैविक प्रबन्धक
नाशककीटों को मित्र कीटों से मारना जैविक नियंत्रण कहलाता है। पर्यावरण को कीटनाशकों से सुरक्षित रखने के लिए नाशक कीटों के परजीवी, परभक्षी, विषाणु, जीवाणु एवं फफूंद का उपयोग कीट नियन्त्रण के लिए कहा जा रहा है। इस दिशा में परजीवी और परभक्षी कीटों, विषाणु, जीवाणु एवं फफूंद को बड़े पैमाने पर इस विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में पैदा कर ग्रसित क्षेत्रों हेतु उपलब्ध कराया जा रहा है।
अण्ड परजीवी-ट्राइकोग्रामा (ट्राइकोकार्ड) अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा फलबेधक के अण्डों में अपने अण्डे देकर अपना जीवन चक्र उसी में पूरा करते हैं। अण्डों के निषेचन होने पर ट्राइकोग्रामा के लार्वा फलबेधक के अण्डों के भू्रण को खाकर अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। ट्राइकोग्रामा का ततैया अण्डों में छेदकर बाहर निकलता है। इस प्रकार फलबेधक को अण्डे की अवस्था में ही समाप्त किया जा सकता है। ट्राइकोग्रामा की आपूर्ति कार्ड के रूप में होती है। एक कार्ड पर लगभग 20,000 अण्डे होते हैं। जैविक नियंत्रण प्रयोगशाला द्वारा ट्राइकोग्रामा प्रीटियोसम तथा ट्राइकोग्रामा बेसिलियेनसिस के 50,000 से 10,000 प्यूपा/वयस्क प्रति हैक्टर की दर, से 7-10 दिन के अन्तराल पर 4-6 बार प्रयोग किये गये। इससे आये परिणामों से पता चलता है लगभग 70-80 प्रतिशत तक हेलिकोवर्पा के अण्डे नष्ट हो जाते हैं। टमाटर की ऊपरी तीन पत्तियों पर फलबेधक के अण्डे दिखाई देने पर ट्राइकोग्रामा के 50,000 प्यूपा/वयस्क प्रति हैक्टर एक सप्ताह के अन्तराल पर 3-4 बार प्रयोग किये जाने चाहिए।
न्यूक्लियर पाॅली हाइड्रोसिस विषाणु (एन.पी.वी.) यह एक जैविक कीटनाशी है। टमाटर में लगे हेलिकोवर्पा की प्रारम्भिक सूंडियों को मारने के लिए अत्यन्त प्रभावशाली जैविक कीटनाशी है जो तरल रूप में उपलब्ध है। इसमें वायरस करण होते हैं। जिसमें सूंडी द्वारा खाने या सम्पर्क में आने पर सूंडियों का शरीर 2 से 4 दिन के भीतर गाढ़ा भूरा फूला हुआ हो जाता है, सफेद तरल पदार्थ निकलता है व मृत्यु हो जाती है। फलबेधक कीट सूंडियों का प्रकोप प्रारम्भ होते ही 250 लार्वल तुल्यांक (एल.ई.) प्रति हैक्टर (1.5×1012 पी.ओ.बी.) की दर से एन.पी.वी. के घोल का 2-3 बार सप्ताह के अन्तराल में छिड़काव सायंकाल के समय किया जाये तथा ध्यान रहे की लार्वा को प्रारम्भिक शैशवास्था में, अथवा अण्डा देने की स्थिति में, प्रथम छिड़काव करने से अच्छे परिणाम मिलते हैं। इस घोल में टीपाॅल 0.1 प्रतिशत (जो सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों से इसकी रक्षा करता है), गुड़ 0.5 प्रतिशत (सूंडी को खाने के लिए आकर्षित करता है) तथा 0.1 प्रतिशत तरल साबुन (जो घोल को पौधों में अच्छी तरह फैलने में सहायता करता है) मिला देते हैं। उसके उपरान्त भी यदि प्रकोप कम न हो तो इस अवस्था में एन.पी.वी. के साथ एण्डोसल्फान का भी प्रयोग किया जाता है। 125 एल.ई.एन. पी.वी. प्रति हैक्टर तथा 25 ई.सी. 0.035 प्रतिशत एण्डोसल्फान का घोल का छिड़काव करने से लाभ मिलता है।
बैसीलस थूरिन्जिएन्सिस (बी.टी.) फलबेधक की प्रथम अवस्था लार्वा को मारने के लिए बहुत ही प्रभावकारी जैविक कीटनाशी है। बी.टी. का सक्रिय तत्व क्रिस्टलीय डेल्टा-ऐन्डोटाक्सिन है। यह फलबेधक की भक्षण क्रिया पर तुरन्त रोक लगाता है। अतः फलबेधक 1-3 दिन के अन्दर मर जाते हैं। फसल को अधिक नुकसान होने से पहले जब फलबेधक प्रारम्भिक अन्तरूप में हो तो 0.5-1.5 कि.ग्रा. 500-750 लीटर पानी मिलाकर प्रति हैक्टर की दर से 10-15 दिन के अन्तराल में 1-3 छिड़काव किया जा सकता है।
ब्यूवेरिया बैसियाना यह एक फफूंदी जनित प्रभावकारी जैविक कीटनाशी है। इसका छिड़काव फलबेधक पर बीमारी पैदा कर देता है, जिससे सूंड़ी निष्क्रिय हो जाती है और मर जाती है। ब्यूवेरिया बैसियाना का छिड़काव 1 किलो प्रति हैक्टर की दर से 12 से 15 दिन के अन्तराल पर सायंकाल को किया जा सकता है।
वानस्पतिक कीटनाशी पौधों से प्राप्त रसायन, जिनमें कीटनाशक गुण होते हैं, वानस्पतिक कीटनाशी कहलाते है। नीम से निर्मित जैविक कीटनाशी टमाटर में हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा के नियंत्रण के लिए अति उपयुक्त है। ये बाजार में कई रूपों में जैसे-अचूक, नीम्बेसिडीन, नीमा गोल्ड, नीमारिन, नीम तेल में उपलब्ध है। फलबेधक के नियंत्रण के लिए 0.5 प्रतिशत नीम तेल का छिड़काव उपयोगी पाया जाता है। फलबेधक कीट का नीम की निंबोली के सत के छिड़काव से भी नियंत्रण करना सम्भव है। निंबोली के सत का घोल बनाने के लिए एक कि.ग्रा. निंबोली को लेकर भलीभांति कूट लें और बारीक कपड़े में पोटली बनाकर बांध लें। इस पोटली को 20 लीटर पानी में रात को भिगो दें। प्रातः दोनों हाथों से दबाकर दूधिया सत निकाल लें। इस घोल में 200 ग्राम साबुन घोल कर मिला दें तथा फसल पर 10-15 दिन के अन्तराल पर 2-3 बार छिड़काव करें।
रासायनिक प्रबन्धन
कीट का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर से ऊपर पहुंचते ही सुरक्षित रसायनों का प्रयोग करना चाहिए। इण्डोसल्फान (0.07 प्रतिशत) या मोनोक्रोटोफास (0.03 प्रतिशत) का छिड़काव लाभप्रद रहता है। आवश्यकता होने पर 2-3 छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल पर करें। इनका उपयोग आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए। रसायन छिड़काव से सुरक्षित समय के अनुसार फलों की तुड़ाई कर उपयोग में लाने चाहिए। सिन्थेटिक पाइरीथ्राइड गु्रप के उपयोग से बचना चाहिए।