क्यों हिंसक हो रहे हैं ये बच्चे?

                                                     
                                        डा0 जगदीश गांधी, संस्थापक-प्रबन्धक
                                          सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ
(1) क्यों हिंसक हो रहे हैं ये बच्चे?:-
 हिन्दुस्तान समाचार पत्र में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार दिल्ली पुलिस ने अपनी सालाना रिपोर्ट में दिल्ली में बढ़ते अपराधों के जो आँकड़े दिए है, वे चिंताजनक हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा चिंताजनक वे आँकड़े हैं, जो समाज में पनप रही हिंसक प्रवृत्तियों से जुडे़ हैं। आँकड़े बताते हैं कि अपराधियों में 94 प्रतिशत ऐसे है, जिन्होंने पहली बार अपराध किया है और हत्या के 57 प्रतिशत अपराधियों की उम्र 25 वर्ष से कम है यानी इन सभी अभियुक्तों के जीवन का सबसे अधिक ऊर्जावान और उत्पादक समय जेल में या केस लड़ने में बीतेगा। आम सोच यह है कि अपराध तो अपराधी, गुण्डे-बदमाश करते हैं यानी जो पहले भी अपराध करते रहे हों। लेकिन 94 प्रतिशत नए लोग अपराधी बन रहे हैं, तो हमें अपने समाज पर सोचना चाहिए। वे कौन-सी स्थितियाँ हंै या बच्चों को कैसा वातावरण समाज में मिल रहा है, जिसमें वे किशोरावस्था पार कर इतनी बड़ी संख्या में अपराधी बन रहे हैं? रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लोगों को छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आ जाता है और आवेश में चोट पहुँचाने से लेकर हत्या को अंजाम दे दिया जाता है।
(2) बच्चे हिंसात्मक फिल्मों से अपराध करना सीख रहे हैं:-
  कुछ समय पहले दिल्ली के मैक्स हैल्थ केयर, मनोरोग विभाग के प्रमुख डाॅ. समीर पारिख ने बच्चों में बढ़ती अपराध वृत्ति पर एक सर्वेक्षण किया था। उनकी रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण बच्चों में हथियार रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। रिपोर्ट बताती है कि 14 से 17 वर्ष के किशोर हिंसात्मक फिल्में देखने के शौकीन हो गए हैं। अमेरिका में हाल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक जिन बच्चों को कम उम्र में प्रताड़ित किया जाता है उसके बाद जीवन भर इस प्रताड़ना का गहरा असर देखने को मिलता है। समाज में देखें तो बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति के लिए एक तो उनके साथ किया गया क्रूर तथा उपेक्षापूर्ण व्यवहार जिम्मेदार है, तो दूसरी तरफ हमारे पूरे परिवेश तथा सामाजिक वातावरण में गहरे पैठे गैर-बराबरीपूर्ण आपसी रिश्ते तथा परत दर परत बैठी हिंसा की मनोवृत्ति जिम्मेदार है।
(3) लाडलों में बढ़ी अपराध की लत:-
 कहते हैं, जिन बच्चों के सिर पर किसी का हाथ नहीं होता, वही गुनाहों के रास्ते पर निकल पड़ते हैं। लेकिन नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक अभिभावकों के साथ रहने वाले बच्चे ‘बाल अपराधियों’ की सूची में सबसे ऊपर हैं। संरक्षक की देखरेख में रहने वाले 10 से 20 फीसदी बच्चे अपराध की राह पकड़ते हैं, जबकि इस मामले में बेघर बच्चों की संख्या सबसे कम है। अभिभावकों के साथ रहने वाले बच्चे इस बात के प्रति आश्वस्त होते हैं कि देर-सवेर उन्हें मां-बाप का संरक्षण मिल ही जाएगा। इन बच्चों के अपराध की राह पर जाने का सबसे बड़ा कारण उनकी उम्मीदों का बढ़ना है। संरक्षक की निगरानी में रहने वाले बच्चे भी अपराध करते हैं, लेकिन समृद्ध परिवारों की तुलना में उनका प्रतिशत काफी कम है।
(4) घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है:- 
 आज घर-घर में केबिल/डिश टी0वी0 हेड मास्टर की तरह लगे हंै। टी0वी0 तथा इण्टरनेट की पहुँच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गयी है। प्रतिदिन टी0वी0, इण्टरनेट तथा सिनेमा के माध्यम से सेक्स, हिंसा, अपराध, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं। बच्चे इन कार्यक्रमों से अपराध, सेक्स, हिंसा, लूटपाट आदि के रास्तों पर चलने की गलत सीख ग्रहण कर रहे हैं। बालक को अच्छा या बुरा बनाने में धर्म, स्कूल तथा समाज की प्रमुख भूमिका होती है। बच्चों को परिवार, स्कूल तथा समाज रूपी तीन विद्यालयों के क्लासरूम में बाल्यावस्था से ही (1) सभी धर्मों की मूल शिक्षाओं का ज्ञान दिया जाना चाहिए, (2) उसे भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों गुणों को विकसित करने वाली संतुलित शिक्षा दी जानी चाहिए तथा (3) उसे एक अच्छे नागरिक के रूप में कानूनपालक तथा न्यायप्रिय बनाने के लिए बचपन से ही कानून तथा न्याय की शिक्षा दी जानी चाहिए। 
(5) जीवन एवं सामाजिक परिवर्तन के लिये स्कूल की ओर चलें:-
 जीवन एवं सामाजिक परिवर्तन के लिये स्कूल की ओर चलने की प्रेरणा से ओतप्रोत एक गीत के बोल इस प्रकार हैं - विद्यालय है सब धर्मों का एक ही तीरथ धाम। क्लास रूम शिक्षा का मंदिर, बच्चे देव समान।। शिक्षक यहाँ पुजारी हैं देते विद्या का दान। बच्चों में अनुशासन लाना, मानव जाति का गर्व बनाना। विषयों की शिक्षा के संग-संग, आध्यात्मिक चेतना जगाना।। शिक्षा हो उद्देश्यपूर्ण, जो आये सबके काम। बच्चों में पवित्रता लाना, मानवता का पाठ पढ़ाना।  सच्ची शिक्षा के द्वारा ही, सामाजिक परिवर्तन लाना।। बच्चे ऊँची शिक्षा पाकर, पायें  जग में सम्मान।   
(6) असंतुलित तथा उद्देश्यविहीन शिक्षा हमें विनाश की ओर ले जाती है:-
 आज संसार की भौतिक चमक-दमक से आकर्षित होकर बहुत से युवक बुरे रास्ते पर जा रहे हैं। गंदे सिनेमा के निर्माता धन की लालच में किशोर तथा युवा पीढ़ी को लक्ष्य करके बरबाद कर रहे हैं। एक कलयुगी बेटे ने जायदाद पाने की जल्दी में सात लाख की सुपारी देकर अपने बूढ़े माँ-बाप को ही मरवा दिया। हमारी यह पढ़ाई किस काम की है? यदि वह हमें भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षाओं का संतुलित ज्ञान न दें।    
(7) प्यार से भरे वातावरण का घरों में अभाव:-
 पहले संयुक्त परिवार मंे बालक को अगर अपने माँ-बाप से डाँट या मार भी मिलती थी तो उसको संभालने और समझाने के लिए परिवार में अन्य सदस्य उपस्थिति रहते थे, जिनकी गोद में आकर बच्चा अपने आपको सुरक्षित महसूस करता था। पुराने समय में घर में काम करने वाली आया या नौकरांे का अपना अलग ही महत्व होता था। उनको परिवार के एक सदस्य के रूप में ही मान्यता मिली हुई थी। संयुक्त परिवार में यदि बच्चा अपने माँ-बाप से किसी बात के लिए डाँट भी खाता था तो उसे परिवार के किसी सदस्य के द्वारा या घर के नौकर या आया के द्वारा समझा-बुझा लिया जाता था। इस कारण से बालक के मन में कुंठा की भावना उत्पन्न नहीं होती थी। 
(8) किशोरावस्था में बच्चों के मन को समझने की बहुत जरूरत है:-
 वर्तमान समय में संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवारों ने ले लिया है। अभिभावकों के पास अपने बच्चों के लिए आपसी परामर्श के लिए समय नहीं है। माँ-बाप बच्चों की सोच को समझने का प्रयास नहीं करते जबकि किशोरावस्था में बच्चों को समझने की बहुत जरूरत होती है। इस उम्र में बच्चों में मानसिक, शारीरिक व हार्मोनल बदलाव होते हैं। बच्चों पर सामाजिक दबाव भी रहता है। इससे वे झुॅझलाते हैं, जो चीज उन्हें पसन्द नहीं उस पर प्रतिक्रिया भी करते हैं। वे खुद अपना निर्णय लेना चाहते हैं। माॅ-बाप बच्चे की क्षमता को समझे बिना उस पर अपना निर्णय थोपते हैं। इससे उन पर दबाव बढ़ता जाता है जो आगे चलकर दुखदायी रूख अख्तियार कर लेता है। आज बच्चों को इस तरह के अवसाद से बाहर निकालने के लिए उनकी अधिक से अधिक काउन्सिलिंग की जरूरत है।
(9) बच्चों को जीवन मूल्यों की शिक्षा देने में शैक्षिक बाल फिल्में सहायक हैं:-
 बच्चे आजकल आॅडियो-विजुअल तरीके से जल्दी सीखते हैं इसलिए शैक्षिक बाल फिल्में बच्चों को जीवन मूल्यों की शिक्षा देने का बड़ा ही सीधा व सरल तरीका है। बच्चों के लिए अधिक से अधिक शैक्षिक बाल फिल्मों का निर्माण होना चाहिए। बाल फिल्मों में सभी धर्मों की एकता, मानव मात्र की एकता, ईश्वर भक्ति, सच्चाई की जीत, प्रार्थना की शक्ति, आत्मविश्वास इत्यादि अनेक गुणों पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। ये शैक्षिक बाल फिल्में बच्चों को एक अच्छा मनुष्य, परिवार का अच्छा सदस्य, देश का अच्छा नागरिक तथा एक अच्छा विश्व नागरिक बनने के लिए प्रोत्साहित तथा प्रेरित करेंगी। साथ ही बच्चों व युवाओं में पनप रही अश्लीलता, क्रूरता, हीनभावना जैसी महामारी को दूर करने के साथ ही ये शैक्षिक बाल फिल्में बच्चों को जीवन में कठोर परिश्रम करके जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा व उत्साह की भावना का संचार कर सकती हैं।
(10) सच्चे प्रयास का महत्व उसके प्रतिफल से अधिक होता है:-
 आप अपने बालक की केवल अच्छे कार्य से मिली सफलता की प्रशंसा ही न करें वरन् उसके सच्चे प्रयास की भी प्रशंसा करें। बालक को उसके प्रयासों तथा कार्य को पूरा करने के लिए शाबाशी दें न कि केवल कार्य के प्रतिफल के लिए।
(11) परिवार, स्कूल तथा समाज में सकारात्मक वातावरण:- 
 स्कूल की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि वह बच्चों को केवल परीक्षा तथा कैरियर के लिए तैयार न करंे बल्कि सम्पूर्ण जीवन की परीक्षा के लिए तैयार करें। आज के सामाजिक पतन के लिए हम किसी एक पर दोष नहीं लगा सकते बल्कि ये हर किसी की सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेदारी है कि वह परिवार, स्कूल तथा समाज में सकारात्मक वातावरण विकसित करने में यथा शक्ति योगदान करें। 
(12) परिवार, समाज और स्कूल का एकताबद्ध प्रयास जरूरी है:-   
 समाज में परिवर्तन लाने तथा सकारात्मक वातावरण विकसित करने के लिए परिवार, स्कूल तथा समाज को एकताबद्ध होकर सकारात्मक वातावरण विकसित करना होगा तभी आज की बाल एवं युवा पीढ़ी जीवन की परीक्षा के लिए तैयार होंगी। वैसे विद्यालय का उत्तरदायित्व सबसे अधिक है। इस स्कूली प्रयास में परिवार तथा समाज का सहयोग भी जरूरी है। जीवन तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए हम सब मिलकर अब स्कूल की ओर चलें। आइये, हम सब एकताबद्ध होकर संकल्प करें कि सकारात्मक दृष्टिकोण से ओतप्रोत टोटल क्वालिटी पर्सन वाली बाल एवं युवा पीढ़ी निर्मित करके एक सुन्दर समाज की संरचना में अपना योगदान करेंगे।


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