सारे जहां में गांधीवाद का परचम


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार आज पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवा रहे हैं। उनके विचारोें के सागर में दुनिया अपनी समस्याओं की गाठें खोल रही है। हथियारों की होड़ में धंसती जा रही दुनिया का भरोसा अब गांधीवाद पर और ज्यादा मजबूत होता जा रहा है। अब लोग समझने पर मजबूर हो रहे हैं कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं हैं। दुनिया भर में हुई हिंसक क्रांतियां विफल हुई है। समय ने समझाया है कि सत्याग्रह और अहिंसा ही अपनी बात कहने का सबसे अच्छा रास्ता है। लोग हों, संस्थाएं हों या फिर देश हो, यह माना जाने लगा है कि अपनी बात कहने का, अपना विरोध दर्ज कराने का सबसे बेहतर विकल्प और मानवीय तरीका है।  
गांधी जी के विचारों की प्रासंगिकता समय के साथ-साथ और भी बढ़ती जा रही है। विश्व में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा इन दिनों तेजी से समाज की प्राथमिकता बनता जा रहा है।  पर्यावरण की चिंताजनक स्थिति को लेकर दुनिया के कई भागों में बुद्धिजीवियों और पर्यावरण कार्यकर्ता सड़कों पर उतरें हैं । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी पर्यावरण पर समग्र चिन्तन किया है। यद्यपि बापू के जीवनकाल में पर्यावरण शब्द चलन में नहीं था, लेकिन युगद्रष्टा गांधी की सोच इतनी दूरदर्शी थी कि उन्होंने उस समय में आज की स्थिति पर चिंता और चिंतन आरंभ कर दिया था। गांधी जी का मानना था कि ‘‘विश्व के पास सबकी जरूरतों कोे पूरा करने के लिए कुछ न कुछ है पर किसी के लालच की पूर्ति के लिए कुछ भी नहीं है। अपने लेख ‘स्वास्थ्य की कंुजी में उन्होंने स्वच्छ वायु पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इसमें उन्होंने कहा है कि तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है-हवा, पानी और भोजन, लेकिन स्वच्छ वायु सबसे आवश्यक है। गांधीजी ने भारतवासियों को चरखे से सूत कातने व उससे बुने कपडे़ पहनने के लिए प्रेरित किया। इसके पीछे उनका उद्देश्य स्वदेशी के प्रति अलख जगाना तो था ही, साथ ही कपड़ा मिलों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों और कचरे को कम करना भी था। 
गांधीजी ग्राम्य विकास के बड़े पक्षधर थे। गांवों के उत्थान हेतु सलाह देते हुए गांधीजी 1946 में हरिजन सेवक में लिखते हैं,‘‘ देहातवालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके। गांधीजी एक तरफ स्वतंत्रता के लिए अहिंसक संघर्ष कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वे अपने रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए भारतीय समाज के बिखरे ताने-बाने को सहेजने की कोशिश कर रहे थे। गांधीजी शिक्षा को प्रमुख कारक मानते थे, बेहतर समाज निर्माण के लिए। उन्होंने 1917 में चम्पारण सत्याग्रह के दौरान पहला बुनियादी विद्यालय बड़हरवा लखनसेन मंे स्थापित किया। शिक्षा के महत्व के संदर्भ में 8 मई, 1937 को वे हरिजन में लिखते हैं,‘‘ मनुष्य न तो कोरी बुद्धि है, न स्थूल शरीर है और न केवल ह्दय या आत्मा ही है। संपूर्ण मनुष्य के निर्माण के लिए तीनों के उचित और एकरस मेल की जरूरत होती है। यही शिक्षा की सच्ची व्यवस्था है। 
 स्वदेशी के जरिए ही भारत आत्मनिर्भर और मजबूत देश बन पाएगा। आज भारत में स्वदेशी के प्रति लोगों में ललक बढ़ी है। इससे अवसर मिलता है, छोटे-छोटे उद्योगों को फल-फूलने का। दूर-दराज के ग्रामीण लोगों को इसके जरिए मौका मिल पाता है आर्थिक रूप से सक्षम हो पाने के लिए। गांधीजी चाहते थे कि स्वदेशी के जरिए देश स्वावलंबी बने। उस दिशा में हमने लंबे अरसे बाद कदम बढ़ा दिया है। जिसका सकारात्मक परिणाम हमारे सामने आने शुरू हो गए हैं। आज स्वदेशी के लिए लोगों में जागृति आयी है, यह अत्यंत संतोषजनक है।
गांव स्वस्थ और स्वच्छ बने। इस कार्य को करने के लिए सरकार ने एक जनआंदोलन छेड़ा है। सफाई जैसे कार्यक्रमों से गांव और शहरों का कायाकल्प होने लगा हैं। गांधी कहते हैं- ’’ग्राम उद्धार में सफाई अगर न आवे, तो हमारे गांव कचरे के घूरे जैसे ही रहेंगे। ग्राम-सफाई का सवाल प्रजा के जीवन का अविभाज्य अंग है। यह प्रश्न जितना आवश्यक है उतना ही कठिन भी है। दीर्घकाल से जिस अस्वच्छता की आदत हमें पड़ गई है, उसे दूर करने के लिए महान पराक्रम की आवश्यकता है।’’ गांव की चिंता के साथ-साथ गांधी शहरों के गंदगी भी चिंतित थे। उन्होंने शहरों की सफाई के संदर्भ में कहा है-’’पश्चिम से हम एक चीज जरूर सीख सकते हैं और हमें सीखनी चाहिए- वह है शहरों की सफाई का शास्त्र।’’ हमें आज भी गांधी के इस कथन को आत्मसात करने की आवश्यकता है। 
गांधीजी के विचार शाश्वत हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उनके विचार व्यवहार की कसौटी पर उनके द्वारा आजमाए गए हैं। समय के सापेक्ष, उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। आज दुनिया के सामने गांधी का रास्ता सर्वोत्तम और सतत है।


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