एग्रो पार्क,कृषि क्षेत्र में नई क्रांति क्रांति


किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने की बात हर मंच पर उठाई जाती है लेकिन बेहतर उत्पादकता के साथ कम लागत में खेती करके भी किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं। इसी मकसद को हासिल करने के लिए इंदौर के मैकेनिकल इंजीनियर डॉ. मंगेश करमाकर ने एक योजना बनाई है, जिसे नाम दिया है 'एग्रो पार्क'। उनका कहना है कि हर बूंद और हर उर्वरक के दाने से ज्यादा पैदावार करने के मॉडल का हम किसानों के समक्ष प्रदर्शन करेंगे। इसके फायदे देखने के बाद किसान खुद ही 'एग्रो पार्क' की मूल भावना समझने और इसे अपनाने के लिए आगे आएंगे।यद्यपि खाद्यान्न आपूर्ति के लिए अब भी अधिकतर भारतीय किसान परम्परागत खेती को ही महत्व देते हैं किंतु शिक्षित किसानों की पीढ़ी ने कुछ नया करने की सोच के साथ परम्परागत खेती की बजाय बाजार की मांग के अनुरूप खेती करना आरम्भ कर दिया है। उनका मानना है कि बीज, खाद, पानी आदि के खर्चे निकालने के बाद परम्परागत खेती से उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हो पाता, इसलिए वे कुछ ऐसी फसलों का चयन कर रहे हैं जिनसे उन्हें निरन्तर अधिक आमदनी होती रहे। इसके अलावा, उन्हें इन फसलों में अपने तकनीकी ज्ञान का उपयोग करने का अवसर भी मिलता है।
एग्रो पार्क
इंदौर के सेंटर फॉर एडवांस टेक्नोलॉजी के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. करमाकर का कहना है कि एग्रो पार्क सिर्फ एक विचार है जिसके जरिए खेती का बेहतर तरीका अपनाया जाएगा। किसानों खासकर छोटे किसानों से खेती के लिए उनकी जमीन लेना खासा मुश्किल है क्योंकि दूर-दराज के गांवों में रहने वाले किसान बाहरी लोगों के प्रति काफी सशंकित रहते हैं। इसलिए डॉ. करमाकर ने अपने स्तर पर खेती करके अपने मॉडल का प्रदर्शन करने का फैसला किया है।
उन्होंने बताया कि शहरों में रहने वाले पांच निवेशकों (मध्यम वर्ग के लोग, जो सिर्फ कुछ लाख रुपये निवेश करने को तैयार हो) का ग्रुप बनाया जाएगा। इस ग्रुप का कुल निवेश करीब 30 से 50 लाख रुपये के बीच होगा। इस पूंजी का करीब दो तिहाई पैसा जमीन खरीदने में खर्च होगा। बाकी पैसा खेती करने के लिए इनपुट और बुनियादी सुविधाएं विकसित करने पर खर्च होगा।
डॉ. करमाकर के अनुसार फिलहाल वे इंदौर और भोपाल के पास जमीन की तलाश कर रहे हैं। उनकी कोशिश शहर से करीब 100 किलोमीटर दूर सस्ती खेतिहर जमीन खरीदने की है। दूरदराज के इलाके में ही सस्ती जमीन मिल सकेगी और दूरदराज के गांवों में ही किसानों को नई तकनीक की जानकारी की ज्यादा आवश्यकता है। जमीन मिलने के बाद ही उनका मॉडल मूर्तरूप लेना शुरू करेगा।
उन्होंने बताया कि एग्रो मॉडल को लागू करने के लिए पांच निवेशकों के समूह को संगठन का रूप दिया जाएगा। एग्रो मॉडल को स्थापित होने में तीन से पांच साल का समय लगेगा।
डॉ. करमाकर के मुताबिक खेती के नए मॉडल का प्रदर्शन छह माह में नहीं हो सकता है। किसानों को प्रेरित करने के लिए जरूरी है कि शहरी निवेशक तीन से पांच साल तक खुद खेती करें। चूंकि शहरी निवेशक शिक्षित होने के अलावा नई तकनीकों से परिचित होंगे, ऐसे में वे खेती के नए प्रयोग कर सकेंगे।
उनका कहना है कि एग्रो पार्क के रूप में खेती करने पर कम से कम दस प्रतिशत रिटर्न अवश्य मिलना चाहिए। पहले समूह की शुरुआत के बाद इसका विस्तार होगा। पांच-पांच निवेशकों के समूह 300 गांवों में बनाए जाएंगे। ये समूह अपने स्तर पर अपनी जमीन में खेती करेंगे।
खेती का तरीका
एग्रो मॉडल के अनुसार हर समूह द्वारा करीब 50 हेक्टेयर जमीन पर खेती की जाएगी। इस जमीन में आधी जमीन सिंचित होगी और वास्तव में इसी जमीन पर खेती की जाएगी। बाकी जमीन असिंचित होगी और वहां खेती के बजाय दूसरे ग्रामीण प्रयोग होंगे जिससे खेती में सहूलियत हो। इस जमीन पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग, गोबर गैस प्लांट, तालाब आदि के प्रयोग किए जाएंगे।
डॉ. करमाकर का कहना है कि 23 जुलाई 2010 उनका मकसद सिर्फ खेती करना ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में पानी और ऊर्जा का संरक्षण भी है। यही वजह है कि अनुपजाऊ जमीन खरीदकर उसके उपयोग का तरीका भी बताया जाएगा। उनका भरोसा है कि 300 गांवों तक समूहों द्वारा 3-5 साल तक खेती किए जाने पर किसानों को अपने आसपास ही नई तकनीक देखने को मिलेगी।
जल संरक्षण
डॉ. करमाकर का कहना है कि एग्रो पार्क का मूलमंत्र बूंद-बूंद पानी से उत्पादकता हासिल करना है। अनुपजाऊ जमीन लेकर वहां रेन वाटर हार्वेस्टिंग का प्रयोग किया जाएगा। इस जमीन पर तालाब बनाया जाएगा। पानी के बेहतर उपयोग के लिए ड्रिप वाटर सिंचाई की जाएगी।
ऊर्जा के लिए प्रयोग
अनुपजाऊ जमीन पर बायोगैस प्लांट लगाने की भी योजना है। गांवों में गोबर की कहीं कमी नहीं रहती है क्योंकि हर घर में पशुपालन आम बात है। गोबर और दूसरी वस्तुओं से बिजली पैदा की जा सकती है। सरकारी योजनाओं के तहत गांवों में गोबर गैस प्लांट तो लगे लेकिन तकनीकी जानकारी के अभाव और सही ढंग से रख-रखाव न होने के कारण आधे से ज्यादा प्लांट बंद पड़े हैं। एग्रो पार्क के तहत समूह ऊर्जा क्षेत्र में प्रयोग करेगा। इस ऊर्जा से ही खेती की गतिविधियां चलाई जाएंगी।
डॉ. करमाकर ने बताया कि खेती की पैदावार बढ़ाकर लागत में कमी लाई जा सकती है। लागत घटेगी तो निश्चित ही इससे रिटर्न बेहतर होगा। एग्रो पार्क के समूहों की सफलता के बाद किसान नई तकनीक अपनाने के लिए प्रेरित होंगे।
शेड नेट में सब्जियों की अगेती खेती
बेमौसमी सब्जियां जैसे गोभी, हरा धनिया, टमाटर, हरी मिर्च और बैंगन की खेती शेड नेट में गर्मियों के मौसम में भी हो सकती है। आमतौर पर सर्दियों में उगने वाली इन सब्जियों की बुवाई-रोपाई अगस्त के बाद होती है लेकिन शेड नेट के जरिए उच्च तापमान से पौधों को बचाकर ये सब्जियां करीब एक महीना पहले यानी जून-जुलाई में उगाई जा सकती हैं। ये सब्जियां सितंबर में ही तैयार हो जाएंगी। जल्दी फसल आने पर बाजार में इनका बेहतर मूल्य मिलेगा।
गर्मी होने के कारण धनिया और गोभी की फसल मौसम का तापमान घटने से पहले उगाना आसान नहीं होता है। लेकिन गर्मियों के दौरान इनकी बुवाई और अगेती फसल लेने के लिए शेड नेट का घर बेहतर विकल्प है। शेड नेट के घर में मई-जून की भीषण गर्मी में भी इनकी बुवाई की जा सकती है।


                                                 
इसकी वजह यह है कि शेड नेट के घर में 75 फीसदी छाया रहने से बीज और पौधे जलने से बच जाते हैं। शेड नेट के घर को चार वर्ष तक उपयोग किया जा सकता है। इसकी लागत दो सीजन में निकल आती है। वहीं मई में बुवाई करने से गर्मियों में धनिया और दीपावली पर गोभी की फसल तैयार हो जाती है। इसके अलावा जून में टमाटर, हरी मिर्च और बैंगन के पौधे उगाए जा सकते हैं। इस तरह ये फसलें सामान्य समय से करीब एक माह पहले तैयार हो सकती हैं।
उपयुक्त इलाके
जयपुर स्थित दुर्गापुरा कृषि अनुसंधान के अनुसंधानकर्ता डॉ. एस. मुखर्जी के अनुसार जिन इलाकों में दोमट या चिकनी मिट्टी हो, वहां ऑफ सीजन में धनिया व गोभी की पैदावार की जा सकती है। इस लिहाज से राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत कई इलाकों में ऑफ सीजन में गोभी व धनिया की पैदावार की जा सकती है।
शेड नेट बनाने का तरीका
अगेती गोभी व धनिया की पैदावार के लिए खेत में एक हजार वर्ग मीटर में शेड नेट का घर तैयार करना होता है। शेड नेट का घर बनाने के लिए लोहे के पाइप या बांस के सहारे से करीब छह फीट ऊंचा ढांचा तैयार किया जाता है। इस ढांचे को शेड नेट से ढक दिया जाता है। शेड नेट बाजार में 20-25 रुपये प्रति मीटर की कीमत पर मिल जाता है। शेड नेट के घर में 75 फीसदी छाया रहने से तेज गर्मी में बीज व पौधे जलते नहीं हैं।
खेती करने की विधि
शेड नेट के घर में क्यारियां बनाकर बीजों को लाइन से बोया जाता है। लेकिन लाइन से बीज बोने से पहले क्यारियों में प्रति वर्ग मीटर में 15 किलो जीवाणु खाद डालना जरूरी है। जीवाणु खाद तैयार करने के लिए प्रति सौ किलो गोबर की खाद में दो सौ ग्राम ट्राइकोडर्मा मिलाकर किसी छायादार स्थान पर करीब बीस दिन के लिए रखते हैं। इसके साथ जीवाणुओं को पनपने देने के लिए खाद में नमी रखनी पड़ती है। तैयार खाद को क्यारियों में डालने के बाद बीजों को ट्राइकोडर्मा या केप्टन या थाइरम से उपचारित कर लाइन से बोने के साथ क्यारियों में रोजाना पानी देना जरूरी है। धनिया के बीजों की मोटी दाल बनाकर इनको एक दिन पानी में भिगोने से अंकुरण जल्दी होता है। गोभी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर आधा किलो बीज उपचारित करने के लिए प्रति एक किलो बीज में तीन ग्राम केप्टन या थाइरम का उपयोग करना पड़ता है। इस तरीके से महीने भर में गोभी के पौधे तैयार हो जाते हैं। इन पौधों को खेत में प्रत्यारोपित कर हर तीसरे दिन पानी देने से इन पौधों में अक्टूबर-नवंबर में फूल आ जाते हैं।
अगेती खेती का फायदा
मई में बीज बोने से सामान्य समय से करीब एक-डेढ़ महीने पहले अर्थात अक्टूबर-नवंबर में ही गोभी की फसल तैयार हो जाती है। वहीं धनिया उगने में करीब एक महीना लगता है अर्थात जून में धनिया उग आता है। इन दोनों को एक साथ बोने से एक फायदा यह भी है कि किसानों को एक महीने बाद से कमाई मिलनी शुरू हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी के दौरान धनिया आसानी से उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए गर्मियों में धनिया के मुंहमांगे दाम मिल जाते हैं। इसी तरह त्यौहारी सीजन के दौरान सब्जियों में गोभी भी हॉट आइटम रहती है।
पैकिंग का रखे ध्यान
पैकिंग पर ध्यान देने से खासकर गोभी को खराब होने से बचाया जा सकता है। आमतौर पर गोभी के फूलों को टोकरों में घास-फूस डालकर या जूट के बारदाने में पैक किया जाता है। इससे गोभी के फूल काले पड़ने के साथ खराब होने की आशंका रहती है। लेकिन गोभी के फूलों को टोकरों में कागज की कतरन या नरम कपड़ा डालकर पैक करें तो यह खराब नहीं होगी और दाम अच्छे मिलेंगे।


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ब्राह्मण वंशावली

मिर्च की फसल में पत्ती मरोड़ रोग व निदान

ब्रिटिश काल में भारत में किसानों की दशा