हमारी मृदा,संरक्षण की आवष्यकता और उपाय
- धीरे-धीरे हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं दूर ही नहीं होते जा रहे हम अब प्रकृति से टकराने भी लगे हें उससे पं्रा लेने लगे है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रायः प्रत्येक घर के बजट में इलाज और दवाओं पर ब्यय एक अनिवार्य मद बनता जा रह है। नाड़ी देख कर इलाज करने वाले वैद्य -हकीम तो अब रहे नहीं। दवाओं से अधिक खर्च अब जाँचों पर होने लगा है। इन सब का मुख्य कारण हमारे खान-पान में आया बदलाव तो है ही हमारी दिनचर्या में आया बदलाव भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। पहले हम महुए के फूल के रस से बनी लप्सी (हलुआ) उसके कच्चे फल गल्लू (क्वैनी) की सब्जा और पके फल के मीठे गूदे को बड़े चाव से खते थे ,इसके अलावा महुए के फल के बीज से निकले तेल से विविध प्रकार के पकवान बना कर उसका सेवन करते थे। करवन ,खीर,मकैचा,अकोल्ह षरीफा कटहल का कोवा बड़हल,जामुन फरेन,रायपेंहटा अमार,आँवला कमरख इत्यादि ,खाना तो हम भूलते ही जा रहे हैं। अनाजों में साँवा, कोदौ, काकुन, मड़ुआ, चेना, रागी जौ ,बेझारी, गोजई अक्सा आदि अब दुर्लभ हो चला है। हमारे खान-पान में आये बदलाव का भी हमारी सेहत पर बहुत अधिक दुश्प्रभाव पड़ा है। फास्ट फूड के नाम पर आज हम न जाने क्या अनाप-षनाप खा-पी रहे हैं। षारीरिक श्रम भी अब हम पहले की तुलना में बहुत कम कर रहे है। पहले हम अपने खेतो में इतना श्रम करते थे कि भेजन पचना को इ्र समस्या ही नही थी आज डाक्टर की सलाह पर जिम में घंटों पषीना बहा कर भेजन पचाते है। आज हमारी गृहणियां रोटी भी मषीन से बनाकर षारीरिक श्रम से बचने का प्रयास करती है तो सेहत तो खराब होना ही हैं। पहले हम अपनी सेहत का सूत्र आयुर्वेद, उपनिशदों, ग्रंथों और षास्त्रों पुराणों में तलाषते थे मगर अब हमारा ध्यान सेकेन्डों में आराम देने का दावा करने वाली एलोपैथिक औशधियों पर केन्द्रित रहता है। चिकित्सा अब सेवा की जगह व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है। न तो अब पहले जैसे गुणी, अनुभवी और विद्वान वैद्य हकीम रहे और न ही वह सेवा भावना रही। मगर एलोपैथिक दवाओं के बढ़ते दुश्प्रभाव के कारण, उनके साइड इफेक्ट के चलते, आयुर्वेदिक यूनानी और रस चिकित्सा की प्रमुखता वाली होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति का प्रभाव और विष्वसनीयता फिर से बढ़ने लगी है। हमारी प्राकृतिक मिट्टी, हमारा प्राकृतिक पानी और हमारी प्राकृतिक वनस्पतियांं में ही हमारी सेहत का खजाना आज भी छिपा हुआ है। इसीलिए हमने गाँव किसान के इस अंक को औशधीय गुण वाली वनस्पतियों से सजाने का प्रयास किया है। यदि किसान भाई इन वनस्पतियों को व्यवसायिक कृशि के तौर पर अपनायें तो अपनी सेहत और आर्थिक स्तर दोनो ही सुधार सकते है। मतलब यह है कि हमे एक बार फिर अपनी जड़ों की ओ त लौटने की जरूरत है जिससे हमारा भविश्य और वर्तमान दानो संवर सकता है। हमने इस अंक में 52 औशधीय वनस्पतियों जैसे- हल्दी, भुइनीम, चिरायता, अड़ूसा, सहिजन ,तुलसी ,ब्राम्ही, हड़जोर सतावर, करीपत्ता, दूधिया घास, दूब घास, पिप्पल, आँवला ,लाजवंती, मीठी घास ,पाताल अँवरा, अड़हुल, घृतकुमारी, अमरूद महुआ, जामुन, कंटकरी, रेंगनी, इमली अर्जुन बहेड़ा, हर्रै सेमल, पुनर्नवा, हल्दी पलाष सरसों, चकवड़, पत्थरचूर, मेथी चरैगोड़वा, सिन्दुआर, बैर, बांस, माल कांगुनी, षतावर, दालचीनी, अषोक, अरण्डी, संजीवनी, कुल्थी,डोरी, अनार, चिरचिटी, बबूल, कटहल, इत्यादि तथा 10 चमत्कारिक वनस्पतियों यथा-सोमवल्ली, हत्थाजोड़ी, तेलिया कंद, भूख हरण, पलाष, ष्वेत अपराजिता, बांदा, गुलतुरा, कीड़ा घास, और ब्राम्ही आदि के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया है। इस अंक में आपको ईसबगोल, तुलसी, स्टीबिया, अष्वगंधा, सर्पगंधा और सदाफूली आदि वनस्पतियों के औशधीय गुण और उसकी कृशि तकनीक के बारें में जानकारी देने का प्रयास किया है। किसान भाइयों आपने अपनी मन पसेद नई सरकार भी चुन ली है बहुत-बहुत बधाई । रंग पर्व और भाई-चारे के त्योहार होलन की भी बधाई ,और अग्रिम बधाई नव विक्रम सम्वतसर की भी । आषा है कि आप अपने खेतों में जायद की नई फसले लगा चुके होंगे। खरीफ की अच्छी फसल के लिए सनई ढैंचे की फसल लगाना मत भूलिएगा। समय के साथ बदलाव जरूरी है। औशधाय पौधों की खेती करके आप चतुर किसान बन सकते हैं साथ ही इस समय जैविक खेती पर बड़ा जोर दिया जा रहा है। यह जोर अनायास ही नहीं हे बल्कि यह भी समय की जरूरत भी है जैविक खेती से उपज भले ही थोड़ा कम मिलती है मगर उसका अच्छा बाजार भाव उस घाटे को पूरा कर देता है। अंत में यही कामना है कि ''सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पषन्तु म कष्चिद दुखभाग भवेत। -
- डा0 शिव राम पाण्डेय