कीटनाशीमुक्त शुद्ध सब्जी उत्पादन की तकनीक


आजकल सब्जियों में जरूरत से ज्यादा उर्वरक, कीटनाशक एवं भूमि शोधन के रूप में प्रयोग होने वाला फोरेट, यूंराडान एवं फफूँदनाशक रसायन का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। इनके प्रयोग से जमीन की भौतिक एवं रसायनिक दशा में ह्रास हो रहा है। पानी में नाइट्रेट की मात्रा जरूरत से ज्यादा बढ़ रही है। सब्जियों में कीटनाशी एवं फफूँदनाशक दवाओं के अवशेष सुरक्षित मात्रा से ज्यादा मात्रा में मिल रहे है। जिससे मानव में घातक बीमारियाँ जैसे- कैंसर, पेट का अल्सर, चिड़चिड़ाहट, ब्लड प्रेसर, लीवर, कैंसर इत्यादि का प्रकोप दिनोदिन बढ़ रहा है।
इसके अलावा सब्जियों की ऊपज और गुणवत्ता में बहुत ह्रास हो रहा है। इन सब परिणामों को देखते हुये जैविक खेती का महत्व बढ़ रहा है जिससे सब्जियों का गुणवत्तायुक्त उत्पादन किया जा सके। पूर्ण रूप से जैविक खेती करना भारतवर्ष जैसे देश में बहुत कठिन है, क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के लिए संकर प्रजातियों का सब्जियों में बहुत प्रयोग हो रहा है जिसके लिये इन प्रजातियों को पोषकों तत्वों की ज्यादा जरूरत होती है। जिसके लिये जैविक खेती में रसायनिक खाद, कीटनाशक एवं फफूँदनाशक का प्रयोग सब्जियों को उगाने में अगर संतुलित मात्रा में किया जाय एवं समय-समय पर किया जाय तो इनके अवशेष भी मात्रा सब्जियों में लगभग न के बराबर मिलेगा जिससे मानव जाति के स्वास्थ्य को खतरनाक बीमारियों से बचाया जा सकता है।
हमारे देश में सब्जियों का निर्यात बढ़ रहा है विकसित देशों में रहने वाले लोग कीटनाशी, फफूँदनाशी एवं अन्य खतरनाक रसायनों के गंभीर परिणाम के प्रति काफी सजग रहते हैं। इसलिये जैविक विधि से सब्जियो उगाकर उन्हें विकसित देशों में निर्यात करके किसान अच्छा लाभ प्राप्त कर सकतें हैं।
भूमि शोधन
- सब्जियों की खेती के लिये बिना किसी रसायन के भूमि शोधन किया जा सकता है, क्योंकि रसायनों के द्वारा भूमि शोधन करने से सब्जियों में इन रसायनों की खतरनाक मात्रा पहुॅच जाती हैं जिसके सेवन से मानव में गंभीर बीमारियॉ हो सकती हैं। भूमि शोधन के लिये गरमियों में खेत की एक गहरी जुताई मिट्टी पलट हल से अवश्य करनी चाहिये इससे एक तरफ जहाँ हानिकारक किड़े, मकोड़े के अण्डे, रोग के जीवाणु आदि नष्ट हो जाते हैं वहीं खरपतवार एवं उनके बीज भी नष्ट हो जाते हैं। वर्षा ऋतु में वर्षा जल भी भूमि में अधिक से अधिक अवशोषित हो जाता है जिससे मृदा में वायु संचार एवं मृदा के रोमछिद्र खुल जाते हैं जिससे पौधों की जड़ों केंं विकास में काफी सुगमता होती है।
सोलाराइजेशन-
मृदा में सोलाराइजेशन समान्यतः ग्रिष्म ऋतु में करते हैं, क्योंकि इस ऋतु में वायु का तापक्रम 35 डिग्री से अधिक रहता है अधिक तापक्रम से खरपतवार के बीज जीवाणु, कवक सुत्र कृमियों के साथ-साथ मृदा में रहने वाले कीटाणु भी पारदर्शी पालीथीन फिल्म से ढकने से नष्ट हो जाते हैं। सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के लिये यह प्रक्रिया काफी प्रभावी है, क्योंकि भूमि शोधन के लिये इसमें किसी भी प्रकार के कीटनाशक का प्रयोग नहीं होता है नर्सरी तैयार करने के लिये पहले खेत की सिंचाई करनी चाहिये उसके बाद उसे सफेद रंग की पारदर्शी पालीथीन से ढक देना चाहिये। 7-10 दिनों तक ढकने से जमीन के अन्दर 6-12 इंच तक धूप एवं गर्मी के प्रभाव से सभी प्रकार के रोगों एवं बीमारियों के किटाणु यहां तक कि खरपतवार के बीज नष्ट हो जाते हैं।
उसके बाद खेत तैयार कर नर्सरी डालनी चाहिये जिससे की पौधें शुरू से ही स्वस्थ तैयार हों। भूमि शोधन के लिये 2-3 कि0ग्रा0 जैव उर्वरक को 40-60 कि0ग्रा0 बारीक भुरभुरी मिटटी या कम्पोस्ट के साथ मिलाकर तैयार किया जाता है। इस प्रकार तैयार जैव उर्वरक एक एकल खेत में छिड़कने के लिये पर्याप्त होता है जैविक खाद को बीज की बुआई या पौध की रोपाई के 24 घंटे पूर्व से लेकर बीज की बुआई का पौध की रोपाई करते समय प्रयोग किया जा सकता है।
पोषक तत्व प्रबंधनः
- खाद और उर्वरक दोनों ही सब्जियों की अच्छी उपज लेने के लिये आवश्यक है। उर्वरकों का सर्वोत्तम उपयोग तभी हो सकता है जबकि कार्बनिक खाद की पर्याप्त मात्रा में भूमि में उपलब्ध हो। भूमि में कार्बनिक तत्व की मात्रा बढ़ाने के लिये हरी खाद, गोबर की खाद, नाना प्रकार की कम्पोस्ट खाद, जैसे- मुर्गियों की बीट चीनी मील से मिलने वाला प्रेसमड़, केचुआ की खाद आदि का उचित मात्रा में प्रयोग हो इसके अलावा जैव उर्वरक एजेटावेक्टर, राइजोवियम का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।
सूक्ष्म तत्व मैगनीज, बोरान, ताबां, जस्ता और मालिब्डेनम आदि भी उच्च कोटि और उत्तम स्वाद वाली सब्जियो को उगाने तथा उनकी उपज बढ़ाने में आवश्यकता पड़ती है फसल सुरक्षा के लिये सब्जियों की खेती में कीटनाशक रसायनों का अधिक उपयोग हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप कीटों में रसायनों के प्राप्ति सहनशीलता बढ़ती जा रही है और कीटनाशी का असर कीटों को मारने में नहीं पड़ता बल्कि सब्जियों में इनके अवशेष रह जाते हैं जिसका कि कुप्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर नजर आता है इसलिए जैविक नियंत्रण सब्जियों की खेती में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इसके लिये ट्राइकोग्रेमा, क्राइसोपरेला कार्नियों एच.ए.एन.पी.वी. इसके अलावा सब्जियों के कीट नियंत्रण के लिये ट्राइकोडरमा विरजी, ग्लीयोक्लेडियम पाइरेन्सा, एवं ट्राइकोडरमा हरडीएनम का प्रयोग बीज उपचार तथा मिट्टी में प्रयोग करके पीथियम, राइजोक्टोनिया, मैक्रोफेमिना एवं स्केलरोशियम द्वारा होने वाली बीमारियों को रोका जा सकता है। यहाँ के किसानों को सही ढंग से कीटनाशी रसायन, फफूँदनाशी रसायन, जैविक नियंत्रण एवं शास्य क्रियाओं को सुनियोजित ढंग से साथ में लाया जाय तो किड़ों एवं बीमारियों का नियंत्रण आसान हो जायेगा। उम्मीद है शोध के परिणाम अगर अच्छे आते हैं तो निकट भविष्य में एक लाभकारी संस्तुति किसानों को मिल जायेगी।
सब्जियों में जैव उर्वरक
- का प्रयोग, जैव उर्वरक उपयुक्त वाहक में तैयार किया गया सुक्ष्मजीव होता है जो कि जैविक नत्रजन का स्थिरीकरण करके या अघुलनशील जटिल फास्फोरस को घुलनशील बनाकर या फिर वृद्धि नियामक, विटामिन और अन्य बृद्धि कारकों को उत्पन्न करके फसल की उत्पादकता को बढ़ा देते हैं। सब्जियों में एजेटोवेक्टर, एजोस्पाइरिलम और फास्फेट को घुलनशील बनाने वाले जैव उर्वरकों के प्रयोग से सब्जियों की उपज एवं गुणवत्ता में बढ़ोतरी के साथ-साथ नत्रजन एवं फास्फोरसधारी उर्वरकों की भी बचत की जा सकती हैं ये जीवाणुजनित जीव उर्वरक स्वतंत्रत रूप से नत्रजन का 25-30 कि0ग्रा0/हे. स्थिरीकरण करते हैं इसके अतिरिक्त यह जैव उर्वरक वृद्धि नियामक जैसे- अकजिन एवं जिबरेलिन तथा विटामिन बी भी उत्पन्न करते हैं, जो पौधों की वृद्धि एवं विकास के लाभप्रद होता है।
पी.एस.एस या पी.वी. सुक्ष्म जीव मृदा में कुल फांस्फोरस का लगभग 25-99 प्रतिशत फांस्फोरस अघुलशील होता है जो कि पौधों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। ये सुक्ष्म जीव जो कि जीवाणु या फफूँद होते है।, अघुलनशील फांस्फोरस को कार्बनिक अम्ल उत्पन्न करके घुलनशील बना देते हैं। जिसमें यह पौधों द्वारा अवशोषण कर लिया जाता है। ये सुक्ष्मजीव लगभग 25 प्रतिशत अघुलनशील फांस्फोरस को घुलनशील बना देते हैं जिससे रसायनिक उर्वरक की काफी बचत होती हैं वैसीलस पालीमिक्सा, एसपाजिलस अनमोरी, पैनीसिलियम डिजीटेटम आदि सुक्ष्मजीव अघुलशील फांस्फोरस को घुलनशील बनाकर फांस्फोरस की उपलब्धता को बढ़ा देते हैं।
न्यूटिलिक (वैम)-
फफूँद जन्य जैव उर्वरक होते हैं जो कि पौधों की जड़ों पर समूह बनाकर रहते हैं। ये फफूँद पौधों को पोषक तत्वों एवं जल की उपलब्धता तथा मृदा की जलधारण क्षमता को बढ़ाते हैं। ये जड़ से सम्बन्धित निमैटोड के नियंत्रण के लिये बहुत प्रभावशाली पाया गया है। मृदाशोधन के लिये मृदा में छिड़कने से पूर्व उसे मिट्टी सड़ी गोबर की खाद एवं बालू के बराबर (1ः1ः1) मिश्रण में मिलाकर प्रयोग किया जाता है। मृदा शोधन के लिये न्यूटिलिक की 50 ग्राम/ एक वर्ग मीटर पौधाशाला के शोधन के लिये पर्याप्त होता है।
वैम के प्रयोग से फांस्फोरस जिक एवं कांपर की उपलब्धता बढ़ जाती है तथा 25-50 प्रतिशत फास्फेटिक उर्वरक की बचत की जा सकती है बीज शोधन के लिये जैविक खाद की 200 ग्राम मात्र 10-12 कि0ग्रा0 बीज शोधन के लिये पर्याप्त होती हैं 200 ग्राम जैविक खाद को 400 मि0ली0 पानी में मिलाकर अच्छी तरह मिश्रित करके बीज को इसमें डाल देते हैं 10-15 मीनट बाद बीज को निकालकर 15 मिनट के लिये छाया में सुखाकर बीज की बुआई कर दी जाती है।
मटर, भिन्डी राजमा, कर्द्दूवर्गीय सब्जियों का बीज इस विधि से शोधित किये जाते हैं पौध शोधन के लिये 1.0 कि0ग्रा0 जैव उर्वरक की लगभग 10-12 ली. पानी में मिलाकर घोल तैयार किया जाता है इस घोल में टमाटर, मिर्च, प्याज, फूल गोभी पत्ता गोभी, बैगन इत्यादि की पौध के जड़ की 15-20 मि0 डुबाने के बाद रोपण किया जाता है
शुद्ध सब्जी उत्पादन में संरक्षित कीट नाशियों एवं वनस्पति से तैयार उत्पाद का प्रयोग करना चाहिये।
निकोटीन सल्फेट- तम्बाकु की पत्तियों से तैयार कीटनाशी है जो सब्जियों में थ्रिप्स, माहू, मकड़ी तथा अन्य चूषने वाले कीड़ों के नियंत्रण के लिये उपयुक्त है।
सवाडिल्ला- यह नाम लीली के बीज से तैयार कीटनाशी है जो सब्जियों में थ्रिप्स, माहू, मकड़ी तथा अन्य चूषने वाले कीड़ों के नियंत्रण के लिये उपयुक्त है।
रोटीनोन- इस कीटनाशी को दो विभिन्न दलहनी फसलो की जड़ों से तैयार किया जाता है। यह विभिन्न सब्जियों में पत्ती खाने वाली सूड़ी एफिड एवं थ्रिप्स की रोकथाम के लिये उपयोगी है।
नीम उत्पाद- नीम के बीज से तैयार किया गया कीटनाशी सब्जियों में बहुत से कीटों के नियंत्रण के लिये प्रभावकारी पाया गया है। तथा मनुष्य एवं लाभकारी मधुमक्खियों के लिये सुरक्षित है।
पाइरिथ्रम कीटनाशी- गुलदावदी के फूलों से तैयार किया गया रसायन है जिसका बहुतायत प्रयोग कीड़ों के नियंत्रण के लिये किया जाता है।
किकुरा रोग- सब्जी की फसलों में पत्तियों का सिकुड़ना एक आम बात है इसके बचाव हेतु 2 टोकरी राख में 50 ग्राम नेप्पथलीन की गोली को बारीक पीसकर मिलायें उपरोक्त मिश्रण का छिड़काव प्रभावित फसल पर सुबह या शाम के समय करें तो यह बीमारी नियंन्त्रित हो जाती है।
टमाटर की फसल को किकुरा रोग (पत्तियों का सिकुड़ना) से बचाने के लिय 5 कि0ग्रा0 राख 100 मि.ली. मिट्टी का तेल से अच्छी तरह से मिलाकर एक एकड़ खेत में बुरकाव करें तो किकुरा रोग से फसल का बचाव होगा।
बोरा (लोबिया)- के खेत में अगर मक्खिया लगने लगे तो 2 कि0ग्रा0 नीम की पत्ती को 50 ली. पानी में उबालकर 11 दिन तक मिट्टी के पात्र में सड़ने दें उसके बाद छानकर 5 ली. गोमूत्र मिला ले इस मिश्रण को फिर 100 ली0 पानी में मिलाकर लोबिया के पौधे पर छिड़काव करने से मक्खियों का नियंत्रण हो जाता है।
इस विधि से बैगन एवं कद्दू के फसल पर बहुत जल्दी जो किड़े लगते हैं जिसके कारण बैगन एवं कद्दू के फल जमीन पर गीरे पड़े रहते हैं और कभी-कभी इन फसलों के फूल भी झड़ते रहते हैं इससें नियन्त्रित हो जाते हैं।
वैज्ञानिक पशुपालन एंव वरिष्ट वैज्ञानिक उद्यान के वी के वाराणसी


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


 


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