कृषि लागत का सही सूत्र ढूंढों तब बढ़ेगी किसान की आय
सरकार किसानों की आय दो गुना करने का ढिंढोरा तो बड़े जोर-षोर से पीट रही है मगर अभी तक सरकार के पास कृशि लागत नापने का कोई सही सूत्र ही नही है। कृशि में किसान की करोडों लाखों रुपये की जमीन फँसी हुई है उसमें उसका 24 घंटे का श्रम एवं चिंतन लगा हुआ है उसके बाद जुताई ,बुआई ,निराई,गुड़ाई खाद पानी सिंचाई दव़ाई ,कटाई मड़ाई ढुलाई पषुआें का हमला एवं दैवीय आपदा से पिनटनें के बाद उसके विपणन एवं भण्डारण का समस्या। कृशि लागत तय करते समय क्या सरकार इन सभी बिन्दुओं पर कभी विचार करती है? वर्ष 2001 से वर्ष 2015 के बीच देश में 234657 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की, क्योंकि न तो उन्हें उनके कृशि उत्पाद का उचित मूल्य मिला, न बाजार में संरक्षण मिला और न ही आपदाओं की स्थिति में वाजिब तरीके से राहत मिली। उत्पाद की लागत बढ़ती गई और खुला बाजार किसानों को निचोड़ता गया। आलम यह है कि पहले से ही कर्ज में डूबा किसान लागत मूल्य बड़े मुश्किल से निकाल पा रहा है, जिससे वह आत्महत्या करने पर मजबूर है। सरकार कृषि उत्पादन को बढ़ाने की मार्केटिंग अपनी उपलब्धि के रूप में कर रही है, लेकिन इस बात को क्यों जाहिर नही किया जा रहा कि कृषि उत्पाद की उपभोक्ता के स्तर पर कीमत और किसान के स्तर पर लागू कीमत में 50 से 300 प्रतिशत तक का अंतर क्यों होता है। किसान को दाल की 55 रुपये मिलती हैं, पर दाल बेचने वाली कंपनी को 200 रुपए या इससे भी ज्यादा मिलते हैं, इस असमानता को दूर करने और किसानों की आय सुनिश्चित करने की सरकार ने कोई प्रतिबद्धता जाहिर नहीं की है। यूपीए सरकार के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसानों का लाभ सुनिश्चित होता था, लेकिन यह सरकार उस रास्ते पर नहीं चल रही। नए उपायों से उन्हें कितना लाभ पहुंचेगा, यह समय बताएगा। लेकिन यह सवाल जरूरी है कि आखिर न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान हितैषी बनाने के संदर्भ में वह मौन क्यों है ? फसल बीमा योजना के बारे में बताया गया है कि 2015 में खरीफ फसल के लिए किसानों ने 69,000 करोड़ का बीमा कराया था जो 2016 में बढ़कर 1 लाख 41, 625 करोड़ हो गया, क्या यह समझा जाए कि किसान बड़ी संख्या में फसल बीमा योजना अपना रहे हैं? अभी 85 प्रतिषत किसान फसल बीमा यांजना से आच्छादित नही हैं,कर्जदार किसानों की सूची ही फसल बीमा योजना से लाभान्वितों के रूप में दर्षायी जा रही है। फसल बीमा यांजना के विज्ञापन और आयोजनों पर ही 1200 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, पर यहां भी सवाल यह है कि किसान तक इसका कितना लाभ पहुंचा? आखिर सरकार अपने राजनीतिक हित साधने वाले विज्ञापनों पर इतना व्यय करने के लिए क्यों मजबूर है? मिट्टी परीक्षण, खेत-तलाब योजना सिर्फ कागजों तक सीमित हैं। पता नहीं यह आंकड़े देने की क्या जरूरत थी कि हमने दस लाख तालाब बना दिए। बजट पेश होने के कुछ समय बाद ही इस बात की हद से ज्यादा फजीहत की जाने लगी, गांव-गांव से सूचना आने लगी कि ये तालाब दिखाई नहीं दे रहे हैं, क्योंकि यह ऐसा मामला है जो दिखाई देता है। खैर हो सकता है कि तालाबों पर छोटे-छोटे कामों को लेखे में लेकर यह आंकड़ा पैदा कर लिया गया हो, लेकिन इसके जिक्र के बाद मजाक तो उड़ना ही था। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और बहुत दुखद है कि हमारी चुनी हुई सरकारें किसी गहरे वित्तीय मायाजाल में फंस चुकी हैं, जिसमें से निकलने की ताकत उनमें बची नहीं है। किसानों को इस समय सीधी सब्सिडी, कृषि के लिए पर्याप्त पानी, खाद, बीज और अन्य संसाधन वाजिब दाम या यूं कहिये कि रियायती दर पर मिलने चाहिए, साथ ही उत्पादित अनाज की दुगनी मूल्य वृद्धि करने की भी आवश्यकता है और किसान की आय पांच साल बाद यानी चुनावी वर्श में नही बल्कि वर्तमान समय में ही दुगनी की जानी चाहिए। किसान की दुगनी आय तभी संभव है जब किसान के उत्पादित अनाज की कीमत दुगनी कर दी जाये, क्योंकि मूल्य वृद्धि से किसान के पास पर्याप्त धन होगा जिससे वह उचित मात्रा में लागत लगा पाएगा, साथ ही किसानों को नई तकनीक व आधुनिक पध्दति से कृषि करने के लिए जागरूक करने हेतु पारदर्शी रूप से प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। साथ ही केंद्र व राज्य सरकारों को मिलकर एक बृहद समग्र नीति बनाने की आवश्यकता है, लेकिन इस मामलें में सरकार की कोई साफ व स्पष्ट नीति दिखाई नहीं देती।