मोटे अनाजों से होगा भूख-कुपोषण का खात्मा
फूड सिक्योरिटी बिल को विपक्षी दल भले ही आम चुनाव की गोटी बता रहे हों, लेकिन पीडीएस के लीकेज से हटकर देखें तो इस विधेयक में कई प्रगतिशील उपाय किए गए हैं। इनमें सबसे अहम है मोटे अनाजों का वितरण। गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून में चावल तीन रुपये, गेहूं दो रुपये और मोटा अनाज एक रुपये प्रति किलो की दर से मुहैया कराने का प्रावधान है। खाद्यान्न उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में खाद्य सुरक्षा भत्ते की व्यवस्था है। इस योजना के तहत राशन कार्ड में घर की मुखिया महिलाएं मानी जाएंगी। मोटे अनाजों के वितरण से न सिर्फ खाद्य व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होगी बल्कि गेहूं-चावल के पहाड़ से भी मुक्ति मिल जाएगी। इतना ही नहीं, आगे चलकर विविधतापूर्ण खेती को बढ़ावा मिलेगा जिससे मिट्टी की उर्वरता में इजाफा होगा और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आएगी।
विविधता थाली की
सरकार ने मोटे अनाजों की संभावित मांग से निपटने की तैयारी पहले से कर रखी है। इसके लिए 2013-14 के बजट में 500 करोड़ रुपये का कोष बनाकर फसल विविधता पर राष्ट्रीय मिशन की शुरूआत की गई है। इसके तहत गेहूं-धान उत्पादक इलाकों में मोटे अनाजोंए, दलहन, तिलहन, साग-सब्जी की खेती और कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जाएगा। इसकी जरूरत लंबे अरसे से महसूस की जा रही थी क्योंकि हरित क्रांति में खाद-बीज से लेकर उपज की खरीद-बिक्री तक में चुनिंदा फसलों को प्राथमिकता दी गई। इसका नतीजा यह निकला कि गेहूं, धान, गन्ना, कपास के रकबे में तेजी से बढ़ोतरी हुई जबकि दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों का रकबा सिकुड़ता गया।पंजाब भी इसी राह
ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो जैसे पौष्टिक व रेशेदार अनाज भोजन की थाली से गायब हो गए। भूजल स्तर में गिरावट, मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी, उर्वरकों की बहुतायत जैसी समस्याएं पैदा हुईं सो अलग। केंद्र सरकार से सबक लेते हुए पंजाब सरकार ने भी फसल विविधीकरण की एक योजना तैयार की है, जिसके तहत अगले पांच सालों में धान के रकबे को मौजूदा 28 लाख से घटाकर 16 लाख हेक्टेयर कर दिया जाएगा। बाकी रकबे में दलहन, तिलहन, मक्का, चना आदि फसलें उगाई जाएंगी। इससे न सिर्फ भूजल व बिजली की खपत में कमी आएगी बल्कि गेहूं-धान की प्रति हेक्टेयर पैदावार में आए ठहराव को तोड़ने में भी मदद मिलेगी। गौरतलब है कि हरित क्रांति के अगुआ पंजाब में खेती लड़खड़ा चुकी है और किसान भारी कर्ज में डूबे हुए हैं।
भ्रष्टाचार के मामले में भले ही पीडीएस का कोई सानी न हो लेकिन देश में गेहूं - चावल के पहाड़खड़े करने में इसकी अहम भूमिका रही है। पीडीएस के तहत गेहूं - चावल के वितरण के लिएसरकार ने भारतीय खाद्य निगम के जरिए इन अनाजों के अग्रणी उत्पादक राज्यों में खरीद ,भंडारण व बिक्री का नेटवर्क स्थापित किया। गेहूं - चावल केंद्रित पीडीएस की दूसरी खासियत यहरही कि इसने खान - पान की आदतों में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। बारहों महीने गेहूं की रोटीऔर चावल खाने का ही नतीजा है कि मोटे अनाजों का सबसे बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूदभारत में इनकी खपत घटती जा रही है। पिछले छह दशकों में मोटे अनाजों के रकबे में 45फीसदी की कमी दर्ज की गई जबकि इस दौरान गेहूं का रकबा दो गुना से भी ज्यादा बढ़ गया।
मोटे अनाजों की विशेषता है कि वे कम पानी में पैदा होते हैं और खाद्य व पोषण सुरक्षा देने केसाथ - साथ पशुचारा भी मुहैया कराते हैं। एक किलो धान पैदा करने में 5000 लीटर पानी कीखपत होती है जबकि ज्वार कुछ सौ लीटर पानी में ही निपट जाती है। ये फसलें मौसमी उतार -चढ़ाव भी आसानी से झेल लेती हैं।पानी की कमी और बढ़ते तापमान के कारण खाद्यान्न उत्पादनपर मंडराते संकट के दौर में मोटे अनाज उम्मीद की किरण जगाते हैं क्योंकि इनकी खेतीअधिकतर असिंचित इलाकों में बिना उर्वरक - कीटनाशक के होती है। पोषक तत्वों की दृष्टि सेइन्हें गुणों की खान कहा जा सकता है। प्रोटीन व रेशे की भरपूर मौजूदगी के चलते मोटे अनाजडायबिटीज , हृदय रोग , हाई ब्लड प्रेशर का खतरा कम करते हैं। इनमें खनिज तत्व भी प्रचुरतासे पाए जाते हैं जिससे कुपोषण की समस्या अपने आप दूर हो जाती है। रागी से बने एक कटोरेहलवे में एक कटोरे चावल के मुकाबले 30 गुना ज्यादा कैल्शियम होता है। बाजरा में सबसे ज्यादाआयरन पाया जाता है , जबकि मक्की की रोटी और सरसों का साग प्रोटीन के मामले में सबकोपीछे छोड़ देते हैं।
मोटे अनाजों के बहु-आयामी लाभों के बावजूद इनके सरकारी खरीद , भंडारण व वितरण की कोईव्यवस्था नही है। इसीलिए किसान इन फसलों की खेती मजबूरी में करते हैं। सरकार अगर इनअनाजों की खरीद , भंडारण व बिक्री का विकेंद्रित नेटवर्क बनाए तो किसान एक बार फिर इनकोअपनाएंगे और ये भोजन की थाली में जगह बना लेंगे। लेकिन इसके लिए जिस राजनीतिकइच्छाशक्ति की जरूरत है उसका फिलहाल अभाव है। गन्ना , गेहूं , धान , कपास के न्यूनतमसमर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के लिए आंदोलन करने वाले किसान संगठन और नेता भी इन अनाजों को याद नहीं करते।