रसभरी की खेती और उत्पादन तकनीक


रसभरी स्वयं के एक अनूठा, खट्टा-मीटा एवं रसीला स्वादिष्ट लोकप्रिय फल है, तथा रूचिकर एवं स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ ही साथ मौसमी फलों मे यह अपनी विशिष्ट पहचान के लिए विख्यात हैं। इसका सेवन सलाद एवं साबुत रूप मेंं भी किया जाता है। इसमें औषधीय गुण भी विद्यमान है तथा यह फल विटामिन 'ए' तथा 'सी' का उत्तम स्रोत है। इसमें 40ः प्रोटीन, 15 : कैल्शियम तथा 10ः विटामिन 'सी' तत्व प्राप्त होते है। लघुस्तरीय उद्योग स्तर पर इसका जैम तथा सॉस बनाकर धानेपार्जन किया जा सकता है।
1. प्रजातियाँ
रसभरी की प्रमुखतः तीन उन्नत प्रजातियों की खेती की जाती है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः-
(अ) देशी रसभरी :- इस प्रजाति का फल हल्का पीला तथा इसका स्वाद कुछ खट्टा होता है। इसकी पैदावार 25 क्विंटल प्रति एकड़ है।
(ब) डिस्को रसभरी - इसका फल उपरोक्त प्रजाति की अपेक्षा स्वाद में खट्टा -मीठा तथा नारंगी रंग लिए हुए होता है। इसका भार 50 ग्राम से 75 ग्राम तक होता है।
(स) कौशल रसभरी - इस प्रजाति का फल उपरोक्त दोनों प्रजातियों के फलों से अधिक स्वादिष्ट एवं रूचिकर होता है। इसमें रस की मात्रा अधिक होती है तथा यह शिमला मिर्च के आकार का होता है। इसका भार 60 ग्राम से 80 ग्राम तक होता है। इसकी भण्डारण अवधि भी तुलनात्मक दृष्टि से अधिक होती है।
2. खेती के लिए भूमि का चयन
सभरी की फसल के लिए लगभग सभी प्रकार की भूमि उपयुक्त है तथापि बलुई दोमट मिट्टी में इसकी पैदावार अधिक एवं अच्छी होती है। दोमट मिट्टी में इसकी पैदावार अपेक्षाकृत कम होती है। रसभरी की अधिक से अधिक एवं संतोषजनक फसल उगाने के लिए खेत से जल निकासी की सुविधा सुनिश्चित करना अति आवश्यक है। साधारणतः इसकी उन्नत खेती के लिए पी0एच0 6.5 तथा 7.5 क्षमता वाली भूमि अत्यधिक उपयुक्त एवं अनुकूल होती है।
3. खेती की तैयारी
सभरी की फसल के लिए चयनित भूमि की जून के प्रथम सप्ताह में मिट्टी पलट हल से न्यूनतम दो बाद जुताई की जानी चाहिए तथा जून के अन्तिम सप्ताह में तीन अथवा चार बार कल्टीवैटर से भूमि की जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा बनाएं। तत्पश्चात् पटेला फिराकर भूमि समतल बनायें।
4. रसभरी की पौध तैयार करने का समय एवं जलवायु
सर्वप्रथम रसभरी की पौध तैयार की जाती है, जिसके लिए 20 जून से 5 जुलाई तक का समय उपयुक्त माना जाता है। रसभरी की खेती के लिए औसतन 20 डिग्री सैल्सियस से 25 डिग्री सैल्सियस तापमान अपेक्षित होता है परन्तु 15 डिग्री सैल्सियस से 20 डिगी सैल्सियस तापक्रम में भी सफलतापूर्वक इसकी खेती की जाती सकती है। इस तापक्रम में फल का रंग नांरगी के सामन हो जाता है तथा उसका विकास भी अच्छा होता है। तापक्रम की न्यूनाधिकता का प्रभाव फल की संख्या, भार, स्वाद, रंग, आकार एवं पौष्टिकता पर भी पड़ता है।
5. बीज की मात्रा
एक हैक्टेयर कृषि क्षेत्र के लिए 200 से 250 ग्राम तक बीज की मात्रा पर्याप्त होती है।
6. पौधशाला में रसभरी की पौध तैयार करना
सर्वप्रथम पौधशाला के लिए निर्धारित भूभाग पर रसभरी के बीज बो दिये जाते है और जब वे अंकुरित हो कर अपेक्षित लम्बाई के पौधे बन जाते है तो उन्हें क्यारियों मे प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। पौधे तैयार करने लिए जीवांशुयुक्त मिट्टी काफी उपयुक्त होती है, अतः पौधशाला (नर्सरी) की मिट्टी में कम्पोस्ट खाद अथवा गोबर की खाद भलीभाँति मिला दें। स्वस्थ एवं पुष्ट पौधे तैयार करने के लिए प्रतिवर्ग मीटर में 10 ग्राम अमोनियम फास्फेट तथा एक किलो सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करें। रसभरी के पौधों की नर्सरी उठी हुई भूमि पर तैयार की जानी चाहिए। क्यारियाँ जमीन की सतह से लगभग 20 से 25 सेंटीमीटर ऊँची होनी चाहिए। क्यारियों का आकार लगभग 3 मीटर लम्बा तथा 1 मीटर चौड़ा उपयुक्त माना जाता है।
रसभरी के बीजों की बुवाई अधिक घनी नहीं होनी चाहिए। बीज बोने के पश्चात् उन्हें (बीजों को) सड़ी हुई गोबर की खाद में बालू मिलाकर अच्छी तरह ढक दें। इसके पश्चात् फव्वारे की विधि से हल्की सिंचाई कर दें। अब इन क्यारियों को जिनमें रसभरी के बीज बोए गये है, धूप से बचाने के लिए घास-फूँस से बनाया गया छप्पर, सरकण्डे अथवा लो-पॉलीटनल से ढक दें। जब बीज अंकुरित होने की स्थिति में हों तो क्यारियां से सभी आवरण (छप्पर आदि) हटा दें तथा
आवश्यकतानुसार फुहारो से सिंचाई करें। एक सप्ताह के अंतराल में क्यारियों में अंकुरित तथा विकसित पौधों को मैंकोजेब 2 ग्राम दवा प्रति की पानी की दर से घोल बनाकर उपचारित करे। यदि लीफ माइनर (सुरंग बनाने वाला कीट) द्वारा पौधों पर आक्रमण होने के लक्षण प्रतीत हों तो ऐस स्थिति में डाईक्लोरोवास 2 मिली एक लीटर पानी में अथवा निम्बीसिडीन के घोल को मिलाकर पौधों की क्यारियों मे अच्छी तरह छिड़काव करें। क्यारियों में बीच बोने के 20 या 25 दिन पश्चात् रोपड़ हेतु पौधे तौयार हो जाती है।
7. खाद तथा उर्वरक
भूमि परीक्षण के अनुसार ही पोषक तत्वों का प्रयोग करना चाहिये। रसभरी की उत्तम एवं स्वस्थ फसल प्राप्त करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों का प्रयोग अति आवश्यक है। एक हैक्टेयर में 20 से 25 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद डालें। तत्व के रूप में 100 से 125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 से 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 50 से 60 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग अवश्य करें। पौधे रोपड़ से तीन या चार सप्ताह पूर्व गौबर की खाद खेत में एक समान डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें फोस्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा व नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा पौध रोपड़ से पूर्व खेत में डालें तथा नाइट्रोजन की शेष मात्रा दो बराबर भागों में विभाजित ़कर रोपाई के 25 से 30 तथा 50 से 60 दिन के बाद की अवधि मे ंक्यारियों में (खेत में) टॉपडै्रसिंग करें।
8. पौध रोपड़
पौधों का रोपड़ ऊँची मेड़ों तथा 12 से 15 सेमी0 ऊँची क्यारियों में किया जाना चाहिए ताकि वर्षा की अवधि में खेत में बहते हुए पानी का सम्पर्क पौधों से न हो सके। यदि पानी का सम्पर्क पौधों से होता रहा तो उनकी जड़े गल जायेंगी और पूरी फसल नष्ट हो जायेगी। अतः खेत में जल निकासी का प्रबंध किया जाना अत्यन्त आवश्यक है।
10. रसभरी के पौधों के रोपड़ का समय एवं दूरी
बीज बुवाई का समय रोपण का समय
20 जून से 5 जुलाई तक पूरा अगस्त माह
सीमित बढ़वार वाली दूरी असीमित बढ़वार वाली दूरी
100 सेमी. ग 60 सेमी. 125 सेमी. से 80 सेमी.
पौध रोपण के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी तथा पौधे से पौधे की दूरी भूमि की उर्वरता तथा रोपड़ के समय के अनुसार कम या अधिक की जा सकती है। पौध रोपड़ से तीन या पाँच दिन पूर्व पौधशाला में पानी की संचाई बन्द कर देना चाहिए।
9. खरपतवार नियंत्रणः-
खरपतवार पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। अतः रसभरी की अच्छी सफल प्राप्त करने के लिए समयनुसार खुरपी से तीन या चार बार खरपतवार को निराई द्वारा समूल नष्ट करते रहना चाहिए।
12. सिंचाई
रसभरी की खेती के लिये अगस्त माह में जब अधिक वर्षा होती है तभी पौधरोपण की प्रक्रिया प्रारम्भ की जानी चाहिए क्योंकि पौध रोपण में गीली मिट्टी की आवश्यकता होती है। यही करण है कि अगस्त माह पौधरोपण हेतु सर्वाधिक उपयुक्त है। पौध रोपण के 20 या 25 दिन पश्चात आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें।
13. प्रमुख रोग तथा कीट
रसभरी की फसल को दुष्प्रभावित करने वाला प्रमुख रोग एवं कीट निम्नानुसार हैः-
(अ) जड़ गलनः- अधिक वर्षा होने के कारण रसभरी के पौधे जब निरन्तर जल के सम्पर्क में रहते है तो उनकी जड़े गलने लगती है। इसी रोग को जड़ गलन रोग के नाम से जाना जाता है। इस रोग से पौधों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खेत मे ंपूर्व से ही जल निकासी की व्यवस्था करना अवाश्यक है। रोग नियंत्रण हेतु पौधों तथा जड़ो के आपपास काबेन्डाजिम फफूंदनाशक 1. ग्राम प्राप्ति ली0 पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहियें।
(ब) मुजैक :- राजभरी की खेती में बहुधा मुजैक का प्रकोप हो जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिए प्रभावित पौधों को उखाड़कर मिट्टी में दबा दें तथा द्वितीयक संक्रमण को रोकने हेतु किसी कीटनाशक लेम्डासाइलोथ्रिन (02 मिली0/ली0 पानी) का छिड़काव करें।
(स) लालरंग का कीट :- प्रायः सितम्बर माह के प्रारम्भ में लाल रंग के बहुत छोटे कीट का रसभरी की फसल पर प्रकोप दिखाई देने लगता है। यह कीट पत्तों की निचली सतह पर छुपा रहता है। इसके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए लेम्डासाइलोथ्रिन कीटनाशक का प्रयोग करना चाहिए।
14. विशेष सावधानियाँः-
रसभरी की फसल उगाते समय कतिपय विशेष सावधानियाँ अपेक्षित है, जो इस प्रकार हैः-
(1) रसभरी के पौधों पर जब फल लगने है, तो कभी-कभी फलों पर एक प्रकार का कीट (गिड़ार) नुकसान पहुंचाता है। इस कीट नियंत्रित करने के लिए नीम आधारित पेस्टीसाइडस का प्रयोग करना चाहिये।
(2) रसभरी की फसल के साथ-साथ अन्य फसलों भी उगाई जा सकती है किन्तु ये फसलें ऐसी होनी चाहिए जो रसभरी की तैयार सफल से पूर्व ही काट ली जाएँ। पत्तागोभी, फूलगोभी, सौंफ, टमाटर, मिर्च तथा धनिया आदि कुछ ऐसी फसल है, जिन्हें पंक्तियों के बीच बोया जाता है और ये सभी रसभरी की फसल तैयार होने से पूर्व ही आ जाती है।
15. फलों की तुड़ाई
रसभरी के फल लगभग जनवरी से पकने लगते है। फलों का ऊपरी आवरण (छिलका) जब पीला हो जाता है तो समझना चाहिए के फल परिपक्व हो चलें हैं और उनकी तुड़ाई का समय सन्निकट है। रसभरी का फल पत्ते के पार्श्व में घूमता हुआ नीचे की ओर लटक जाता है। ऐसी स्थिति में जबकि परिपक्व पीतवर्णी फल नीचे लटक गया हो तो उसे (फल को) सावधानीपूर्वक डंठल पकड़कर तोड़ना चाहिए।
16. पैकिंग, भण्डारण एवं विक्रय
रसभरी के फलों की पैकिंग इस प्रकार की जानी चाहिए की उनके बण्डलों मे ंपर्याप्त मात्रा में हवा का आवागमन होता रहें। इसके लिए बाँस की डलियाँ, टोकरियाँ तथा प्लास्टिक क्रेटो का प्रयोग करना चाहिए। यदि पैकिंग सावधानीपूर्वक एवं भलीभाँति की गयी है तो रसभरी के फलों को 72 घण्टों तक बिना किसी संसधान के सुरक्षित रखा जा सकता है।
विक्रय हेतु तैयार किये जाने वाले बण्डलों में मात्र स्वस्थ, बेदाग एवं सुन्दर फलों को ही रखना चाहिए। केट-कटे, दागदार अथवा अन्य प्रकार से अनुपयोगी फलों को अलग निकाल कर रख लें। समीपवर्ती किसी मण्डी में ले जाकर इनका विक्रय किया जा सकता है। यदि निजी संसाधन उपलब्ध है, तो दुरस्थ मण्डी जैसे दिल्ली बरेली कानपुर आदि मण्डियों बेचकर अधिक लाभ कामाया जा सकता है।


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