अब तो खेतों को ही खाने लगी खाद
रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग खेत के लिए ही बघ्ी चुनौती बन गया है। मिट्टी की गिरती उर्वरा क्षमता से पैदावार प्रभावित होने लगी है। खाद्य सुरक्षा के लिए पैदा हुई इस मुश्किल से सरकार की चिंताएं भी बघ्ी हैं। इस संकट से निपटने के लिए सरकार ने कई पुख्ता उपायों की घोषणा की है। इसके तहत जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के साथ मिट्टी की उर्वरा क्षमता को बघने वाले उपायों पर जोर दिया जाएगा।
खेत की मिट्टी की जरूरत को जाने बगैर रासायनिक खादों के असंतुलित प्रयोग से उपजाऊ क्षमता लगातार कम हो रही है। हरित क्रांति में शामिल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसलों की उत्पादकता में गिरावट दर्ज की जा रही है। मिट्टी में सूक्ष्म तत्वों की कमी से उर्वरा क्षमता प्रभावित हुई है। इसमें सुधार के लिए फसल चक्र अपनाने, जैविक खादों का प्रयोग बघने और खादों के संतुलित प्रयोग को बघवा दिया जाएगा।
सरकार खेतों पर ही कंपोस्ट, जैव और हरी खाद जैसे पोषक तत्वों के जैविक स्रोतों को विकसित करने के लिए मदद देगी। खेती से पहले फसलों की जरूरत के लिए मिट्टी की जांच कराई जाएगी, ताकि उसी के अनुरूप खादों का प्रयोग किया जा सके। राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन के तहत खेतों की मृदा जांच कराई जाएगी। इसके लिए सरकार देश के 14 करोघ् किसान परिवारों को खेतों के स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराएगी।जिला स्तर पर स्थापित कृषि विज्ञान केंद्रों की भूमिका बघते हुए उन्हें मिट्टी की जांच, रासायनिक खादों के असंतुलित प्रयोग और किसानों को जागरूक करने की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। जागरुकता के अभाव में यूरिया जैसी खाद का बेहिसाब प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं एनपीके का प्रयोग भी इसी अंदाज में किया गया है। लेकिन, खादों के प्रयोग की इस अंधी दौघ् में मिट्टी के सूक्ष्म और सहायक तत्वों की अनदेखी हुई है। इसका असर फसलों की उत्पादकता पर पड़ रहा है। रासायनिक खादों को असंतुलित प्रयोग को रोकने, जैविक तत्वों के प्रोत्साहन और मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों को बघने के लिए योजनाएं तैयार की गई हैं। इससे फसलों की उत्पादकता के साथ किसानों की आय भी बढ़ेगी ।
दुनियामाली (ज्वार जैसी बाली) किस्में शामिल हैं।
दवाओं के कहर से जहर होती जमीन
खेती में कीटनाशकों के इस्तेमाल का बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जलस्रोतों में पहुँच जाता है और भूजल को प्रदूषित करता है। जमीन में रिसने से काफी जगहों का भूजल बेहद जहरीला हो गया है। ये रसायन बहकर नदियों और तालाबों में भी पहुँच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है।
कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली फसलों के खाने से न सिर्फ इन्सान की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा, बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पर्यावरण भी प्रभावित हुआ। जब भी देश के विकास की बात होती है, तो उसमें हरित क्रान्ति का जिक्र जरूर होता है। यह जिक्र समीचीन भी है क्योंकि हरित क्रान्ति के बाद ही देश सही मायने में आत्म-निर्भर हुआ है। यहाँ पैदावार बढ़ी, लेकिन हरित क्रान्ति का एक स्याह पहलू भी है, जो धीरे-धीरे समाने आ रहा है।जैसा कि हम जानते हैं कि हरित क्रान्ति के दौरान हमारे नीति-निर्धारकों ने देश में ऐसी .षि प्रणाली को बढ़ावा दिया, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अलावा पानी की अधिक खपत होती है। ज्यादा पैदावार के लालच में किसानों ने भी इन्हें स्वेच्छा से अपना लिया।
कल तक खोती में प्रा.तिक खादों का इस्तेमाल करने वाला किसान रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा। जाहिर है कि इससे कृषि की पैदावार बढ़ी भी, लेकिन किसानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ये रासायनिक खाद और कीटनाशक आगे चलकर उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति सोख लेंगे।
रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हुई सो हुई, उनका किसानों और खेतिहर मजदूरों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ने लगा। कीटनाशकों के सम्पर्क और फसलों में आए उनके खतरनाक असर से किसानों में कैंसर समेत अनेक गम्भीर बीमारियाँ पनपीं। चूँकि रासायनिक खादों और कीटनाशकों का सबसे ज्यादा असर पंजाब में हुआ था, तो उसे ही इसका भयंकर नुकसान झेलना पड़ा।
बीते कुछ वर्षों मे पंजाब के भटिण्डा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मनसा जिलों में बड़ी तादाद में किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र, चण्डीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय समेत खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से इन जिलों में कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुँच गया है
खेती में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल पर रोक लगाने की जरूरत लम्बे समय से महसूस की जाती रही है। इसके मद्देनजर सरकार ने कुछ कीटनाशकों के खतरनाक असर को देखते हुए उन्हें प्रतिबन्धित भी किया, फिर भी इनका इस्तेमाल नहीं रूका।
फसल को बीमारी से बचाने के लिए जितना कीटनाशक इस्तेमाल होता है, उसका बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जलस्रोतों में पहुँच जाता है और ये भूजल को प्रदूषित करता है।
हालत यह है कि इन रसायनों के जमीन में रिसते जाने की वजह से काफी जगहों का भूजल बेहद जहरीला हो गया है। यही नहीं, ये रसायन बाद में बहकर नदियों और तालाबों में पहुँच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है। उनमें तरह-तरह के रोग पैदा हो रहे हैं। कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली फसलों के खाने से न सिर्फ इंसान की सेहत पर प्रभाव पड़ा, बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पर्यावरण भी प्रभावित हुआ।
इतना सब कुछ होने के बाद भी सरकार में जरा-सी भी यह इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती कि वह कीटनाशकों के इस्तेमाल को रोकने या सीमित करने के लिए कुछ खास कदम उठाए। कुछ ऐसा करे कि कीटनाशकों का इस्तेमाल हतोत्साहित हो।
जब भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से पैदा होने वाले स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों की बात उठती है, तो यह दलील दी जाती है कि इस पर रोक लगाने से पैदावार कम हो जाएगी। इससे देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी, लेकिन ज्यादा पैदावार किस शर्त पर मिल रही है इसे जानते-बूझते नजरअन्दाज कर दिया जाता है।खाद्य सुरक्षा का मतलब किसी भी तरह पैदावार को बढ़ाना नहीं होता। खाद्य ऐसा होना चाहिए, जो सेहत के लिए भी मुफीद हो। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल से न सिर्फ इन्सान और जीव-जन्तुओं की सेहत पर असर पड़ रहा है, बल्कि जमीन के उपजाऊपन में भी कमी आ रही है।अब वक्त आ गया है कि सरकार अपनी कृषि नीतियों का पुनरावलोकन करे। साथ ही, आधुनिक कृषि प्रणाली के फायदे और नुकसान का सही-सही जायजा ले। सरकार की ओर से कीटनाशकों के इस्तेमाल को नियन्त्रित करने और खेती के ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की पहल होनी चाहिए, जो सेहत और पर्यावरण, दोनों के लिए अनुकूल हों, तभी जाकर खेत और किसान सुरक्षित रहेंगे।