मरती नदियां ,योजनाओं की जुगाली करते अफसर

हमारे ऋषियों , मुनियों और मनीषियों हमें हमेशा प्रकृति का सम्मान करना सिखाया मगर हमने किया क्या? हमेशा प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया यही कारण है कि हमारे प्राकृतिक संसाधन हमसे रूठते जा रहे हैं यही कारण है कि आज हर कोई यह कहने लगा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा धरती माता की सेहत दिनो-दिन बिगड़ती जा रही है इसे हर कोई  जानता है और कहता भी है किंतु मृदा स्वास्थ्य की परवाह कोई नहीं करता हैं उद्योगपतियों की तो खैर बात ही छोड़िये हमारी सरकारें भी अपनी सारी विकास योजनायें हमारे प्राकृतिक संसाधनों के विनाश की ही कीमत पर बनाती है। यह मानना शायद हमारी भूल ही होगी कि आज भी गंगा ब्रम्हा के कमण्डल और शिव जी की जटाओं से निकल रही हैं इन महादेवों के पास और भी तो बहुत सारे काम होंगे कि केवल गंगा को ही पकड़े खड़े होंगे। अरे भाई! नदियां हां या तालाब ,सागर हों या झरने, झीलें हों या कुंए, अथवा भू-गर्भीय जल इन सभी जल स्रांतों का हम केवल दोहन ही करेंगे और उनके जल ग्रहण मार्ग को बंद कर देंगे तो वे हमारा कब तक क्यो ? और कैसे साथ निभायेंगे ? लक्ष्मी के लोभ में सरस्वती की उपेक्षा हम कब तक करते रहेगे ? तमाम जल विद्युत परियोजनाओं ,बांधों चेकडेमों तथा अन्य विकास कार्यों के लिए हम अपने जलस्रोतों के जलग्रहण मार्ग को अवरुद्ध करते जा रहे हैं।



लखीमपुर में एक झील से निकल कर बलराम पुर गोण्डा होते हुए बस्ती के लालगंज नामक स्थान पर तिरमोहानी (त्रमुख) में कुंआनो नदी में बिलीन होने वाली मनोरमा नदी अब जल शून्यता के कारण लालगंज से पहले ही मरती जा रही है। यह नदी कम से कम तीन जनपदों के सैकड़ों गांवों की जीवन आधार,कृषि की जीवन रेखा और पशु पक्षियों का जीवन आश्रय और किल्लोल स्थली रही है। अब आप इस नदी मे नौका विहार की जगह पदयात्रा कर सकते है ,मोटर साइकिल रेस कर सकते हैं,कबड्डी खेल सकते हैं। लाखों जलीय जीव जन्तुओं और मछलियों का जीवन आश्रय छिन गया मगर हम पर क्या फर्क पड़ता है। मनोरमा जी हम स्वार्थी मानव तो आपके लिए कुछ करने से रहे क्योंकि तुम क़ोई वोट बैंक तो हो नहीं मगर तुम रूठो नहीं,तुम मरो भी नहीं। तुम मर जाओगी तो हम भी मर जाएंगे। मुझे अब भी याद है, बचपन में हम तुम्हारी पावन गोद में घंटों खेला करते थे। ठंड में नाक आंख बंद कर हम दौड़ कर तुम्हारे शीतल जल में छपाक से कूद कर डुबकी लगाते थे,ठंड से हाथ पांव शून्य हो जाता था मगर गर्मियों की दोपहर में हम तुम्हारे जल में लगातार पांच छह घंटे नहाते थे ,छुपा छुपाई खेलते थे। तुम्हारी गोद में जी जुडा़ जाता था। मनोरमा ! हम कैसे रह पाएंगे तुम्हारे बना। तुम तो मां हो तुम्हें तो रूठने का भी हक नहीं है। हम तो तुम्हारे बच्चे हैं ,हमें गलती करने का हक है और तुम ,तुम तो रूठ भी नहीं सकती। अतःहे मनोरमा तुम रूठो नहीं तुम मरो नहीं,तुम्हे जिन्दा रहना ही पडे़गा हमारे लिए,अपने बच्चों के लिए। तुम मत मरो मनोरमा।



एक और उदाहरण उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का ही ले लीजिए। प्रदेश सरकार गोमती नदी के दोनों ओर 12 मीटर ऊँची भूमिगत और 8 किलो मीटर लम्बी दीवार बनाकर नदी में आ रहे गंदे पानी को रोकने का इंतजाम कर दिया  मगर गोमती का कोई भला नही हो पाया। इधर वैज्ञानिक कह रहे हैं कि गोमती के दोनो ओर बांध बना कर  गोमती के दानो तटों पर बह कर आने वाले पानी का रास्ता रोक देने से तो फिर गोमती तो कंगाल हो जाएगी। जब उसके जल ग्रहण क्षेत्र को ही पैक कर दिया जाएगा तो इस नदी का कोई जल स्रोत ही नहीं बचेगा क्योकि गोमती कोई पहाड़ी नदी तो है नहीं कि ग्लैशियर पिघलने अथवा  बर्फवारी से पिघला पानी उसका पेट भर देगा। ऐसे मे तो मर जाएगी बेचारी गोमती। इधर उत्तर प्रदेश का योगी सरकार ने 2400 हजार करोड़ रुपये खर्च कर वर्ष 2040 तक गोमती नदी को प्रदूषण मुक्त करने की योजना तैयार की जबकि अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय का कहना है कि वर्ष 2030 तक धरती पर केवल 30 प्रतिशत आवादी के लिए ही जल संसाधन शेष रह पायेगा ऐसी दयषा में जब कि गोमती में पानी ही नही रहेगा तो उसे प्रदूषण मुक्त बनाने की बजाय उसे जल संसाधनों से भरपूर बनाने की योजना की जरूरत है न कि प्रदूषण मुक्त करने की। योजनाकार ब्यूरोक्रेट्स ओैर अभियंता जनता की गाढ़ी कमाई उड़ाने ओर धन का अपव्यय कर योजनाओं की जुगाली करते हैं और नेतायाही इन अफसरो द्वारा की जा रही योजनाओं की जुगाली पर घोशणयें कर केवल तालियां बटोर  आत्ममुग्ध हो जाते हें । देश और देश  की जनता का क्या भविष्य होगा इसेका चिंतन वे नहीं करते हैं।


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