सब्जियों की पौधशाला (नर्सरी) प्रबन्धन
सब्जियॉं हमारे भोजन का एक प्रमुख अंग हैं। इनमें खनिज लवण, विटामिन एवं रेशे प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं जो अनाज, दलहन व तिलहन में नगण्य रूप में मिलते हैं। हमारे प्रदेश एवं देश में सब्जी की उत्पादकता क्रमशः 21.6 तथा 17.3 टन प्रति हेक्टयर है, जबकि अमेरिका एवं चीन जैसे विकसित देशों में यह 32.5 एवं 23.4 टन प्रति हेक्टेयर है। सब्जियों की उपलब्धता सब्जियों की उत्पादकता बढ़ाकर ही पूर्ण की जा सकती है क्योंकि क्षेत्रफल में विस्तार की संभावनायें अत्यन्त कम हैं। सब्जियों की उत्पादकता में बहुत से कारक यथा भूमि, जलवायु, बीज/पौध, खाद एवं उर्वरक, बुवाई, सिंचाई, निराई-गुड़ाई, पौध सुरक्षा आदि अपनी भूमिका निभाते हैं। इनमें से गुणवत्तायुक्त बीज से अच्छी पौध तैयार करना बहुत ही अहम भूमिका निभाता है।
गुणवत्तायुक्त बीज की उपलब्धता होने के बाद उसकी पौधशाला में बुवाई करके स्वस्थ पौध तैयार करना एक दक्षतापूर्ण कार्य है। सब्जियों की पौध तैयार करना प्रायः सभी सब्जी उत्पादक जानते हैं परन्तु इस प्रक्रिया में कहीं थोडी सी भी चूक हो जाने पर उत्पादकों को काफी क्षति उठानी पड़ सकती है। अतः यदि पौध तैयार करने के विभिन्न पहलुओं की जानकारी उत्पादकों को हो जाये तो संभावित नुकसान से भी बचा जा सकता है। इस आलेख के माध्यम से सब्जी उत्पादकों को पौधशाला से संबंधित समस्त पहलुओं पर विस्तार से जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया गया है ताकि पौध उत्पादन में आने वाली समस्याओं से बचा जा सके।
पौधशाला (नर्सरी) में बीज बोने से लाभ
* कम क्षेत्रफल में होने के कारण कोमल पौध की देख-रेख में सुविधा।
* कीट एवं रोगों से सुरक्षा के लिए सही समय पर सही उपचार।
* भूमि की बचत तथा खेत की तैयारी के लिये पर्याप्त समय का मिलना।
* बीज की अनावश्यक बरबादी को रोकना।
* पौध को नर्सरी में उगाने के लिये अनेक प्रकार की परिस्थितियॉं प्रदान की जा सकती हैं तथा प्रतिकूल परिस्थितियों से सुरक्षा भी की जा सकती है।
* अगेती फसल से अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
* प्रतिरोपण के बाद खेत में कीटों एवं रोगों की रोकथाम सरलता से हो जाती है।
स्थान का चुनाव
पौधशाला हेतु अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त दोमट या बलुई दोमट भूमि उत्तम होती है। भूमि अम्लीय या क्षारीय न हो तथा खरपतवार, हानिकारक रोग, कीटों एवं जानवरों के प्रकोप से मुक्त हो। पौधशाला के लिए छायादार स्थान न चुनें। सूर्य प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता तथा सिंचाई के पानी का उत्तम प्रबन्ध हो। पौधशाला योग्य भूमि के अभाव में पौधशाला के लिए विभिन्न प्रकार के पात्रों जैसे थालीनुमा गमले या तसले, लकड़ी की पेटियॉं (बक्से), टीन के डिब्बे इत्यादि का प्रयोग भी किया जा सकता है। इन पात्रों में गहराई की विशेष आवश्यकता नहीं होती है बल्कि इनकी बाहरी सतह का खुला होना आवश्यक होता है ताकि उगे हुए पौधों को अधिकतम धूप (प्रकाश) मिल सके। गमलों/बक्सों में पौध तैयार करने पर पौध को खराब मौसम से आसानी से बचाया जा सकता है।
पौधशाला की मिट्टी की तैयारी
पौधशाला प्रक्षेत्र की एक गहरी जुताई/खुदाई करने के पश्चात दो-तीन जुताई-गुड़ाई कर भूमि को भुरभुरा बनाये तथा पुरानी फसल के यदि कोई अवशेष हो तो उन्हें निकाल दें। मिट्टी सख्त होने की दशा में प्रति वर्ग मीटर की दर से 2-3 किग्रा रेत/बालू मिलाये। पौधशाला में 3-4 किग्रा. सड़ी गोबर की खाद/कम्पोस्ट अथवा 500 ग्राम वर्मीकम्पोस्ट तथा 50 ग्राम एन.पी.के. (15ः15ः15) का मिश्रण प्रति वर्ग मीटर की दर से अच्छी प्रकार से मिलाये। यह मात्रा क्यारी के आकार के अनुसार घटाई-बढाई भी जा सकती है। पौधशाला का क्षेत्र प्रत्येक दो वर्ष पश्चात बदल दें अन्यथा पौधशाला में तरह-तरह के रोगों की संभावना बढ जाती है।
भूमि शोधन
हानिकारक जीवाणुओं से बचाव के लिए भूमि शोधन अत्यंत आवश्यक है। भूमि शोधन न सिर्फ पौधशाला वरन् खेत की मुख्य फसल के लिए भी लाभकारी है। भूमि शोधन सामान्यतः तीन प्रकार से किया जा सकता है-
(अ) मृदा सौर्यीकरण (मृदा सोलेराईजेशन)
यह भूमि शोधन की सबसे सस्ती व लाभकारी तकनीक है। इसमें पौधशाला प्रक्षेत्र में क्यारी बनाकर, जुताई व हल्की सिंचाई कर मिट्टी को नम करके पारदर्शी 200 गेज मोटी पालीथीन चादर से क्यारी को ढककर चारों तरफ से किनारों को मिट्टी से दबा दिया जाता है ताकि पालीथीन के अंदर की हवा एवं वाष्प बाहर न निकले। पालीथीन ढकी क्यारियों को 4-6 सप्ताह के लिए छोड़ देते हैं तदोपरान्त पालीथीन हटाकर गुड़ाई कर क्यारियॉं बनाकर बीज की बुवाई की जाती है। मृदा सौर्यीकरण का उपयुक्त समय 15 अपै्रल से 15 जून तक है। इस अवधि में अधिकांशतः मौसम साफ रहने के कारण तेज धूप होती है जिससे पालीथीन के अन्दर का तापक्रम 48-52 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो जाता है जो अधिकांश रोगकारकों एवं खरपतवारों को मारने के लिए पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त इससे जीवाणु धब्बा बीमारी पर नियंत्रण के साथ ही मूल ग्रन्थि निमेटोड की संख्या में भी कमी आती है तथा पौधों में पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
(ब) जैविक विधि
मृदा सौर्यीकरण के उपरान्त जैविक विधि से भूमि शोधन लाभकारी है। पौध गलन बीमारी से बचाव के साथ-साथ यह विधि जैविक खेती के उद्देश्य से भी महत्वपूर्ण है। इसके अन्तर्गत ट्राइकोडर्मा प्रजाति, सुडोमोनास फ्लोरोसेंस एवं एस्परजिलस नाईजर से पौधशाला भूमि का शोधन किया जाता है। पौधशाला प्रक्षेत्र को अच्छी प्रकार से तैयार करके 10-25 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की दर से जैव पदार्थ खेत की नम मिट्टी में अच्छी प्रकार से मिलाने के दो-तीन दिन बाद बुवाई करें। इसके उपयोग से पौधों की बढवार शीघ्र होती है। जैव पदार्थों का प्रयोग करते समय ध्यान रहे कि खेत गीला न हो तथा उसमें किसी भी रसायन का प्रयोग न किया गया हो।
(स) रासायनिक विधि
जिन क्षेत्रों में मृदा सौर्यीकरण किया जाना संभव न हो अथवा जहॉं विलम्ब से पौधशाला में बुवाई का निर्णय लिया गया हो उन स्थानों के लिए यह विधि उपयुक्त है। इस विधि में फफॅूंदनाशकों एवं कीटनाशकों से भूमि शोधन उपरान्त बीज की बुवाई की जाती है। फफॅूंदजनित बीमारियों से पौध की सुरक्षा के लिए कैप्टान या थीरम या कार्बोफ्यूरान (5 ग्राम प्रति वर्गमीटर क्यारी की दर) से जबकि कीट (मृदा कीट एवं पत्तियों से रस चूसने वाले कीट) नियंत्रण के लिए फ्यूराडॉंन या क्लोरोपायरीफॉंस (5 ग्राम प्रति वर्गमीटर क्यारी की दर) से भूमि शोधन करते है।
क्यारियॉं तैयार करना
पौधशाला में बीज की बुवाई हेतु क्यारियॉं मौसम के अनुसार तैयार करें। वर्ष ऋतु (खरीफ) एवं शरद ऋतु (रबी) में भूमि की सतह से 15-20 सेमी. ऊॅंची जबकि गर्मियों में समतल क्यारियॉं ही बनायें। ऊॅंची क्यारियों में पौधों का विकास अच्छा होता है। क्यारियों की लम्बाई आवश्यकतानुसार 3-5 मीटर रखें लेकिन कृषि क्रियाओं की दृष्टि से क्यारियों की चौड़ाई किसी भी दशा में एक मीटर से अधिक न रखें। सभी मौसमों में दो क्यारियों के बीच शस्य क्रियाओं, सिंचाई एवं जल विकास हेतु 50 सेमी. स्थान खाली छोड़े। गमलों/बक्सों में 2 भाग मिट्टी, 1 भाग बालू तथा 2 भाग कम्पोस्ट या एक भाग पत्तियों की खाद से अच्छी तरह दबाकर भरें।
प्रतिकूल वातावरण (तेज धूप/अधिक ठंड) में खुली क्यारियों में बीज की बुवाई और जमाव कठिन हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में पौध तैयार करने के लिए लोटनल/पॉंली हाउस, ग्लास हाउस, पालीथीन की थैलियों (प्लांटिग ट्यूब), ट्रे, गमलों आदि का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु इनमें तैयार पौध का अनुकूलन आवश्यक है।
बीज एवं बुवाई
रोपाई के लिए विभिन्न सब्जियों में अलग-अलग बीज की मात्रा व स्थान की आवश्यकता पड़ती है। यदि रोपाई हेतु अनुमानित पौध की आवश्यकता सुनिश्चित कर दी जाय तो बीज की उपयुक्त मात्रा का निर्धारण सुगमता से हो सकता है। इस सन्दर्भ में विवरण तालिका-1 एवं 2 में दर्शाया गया है।
तालिका 1ः पौध तैयार करने के लिए संस्तुत बीज की मात्रा तथा क्षेत्र की आवश्यकता
क्र. सं. सब्जी का नाम संस्तुत बीज की मात्रा(ग्राम) संस्तुत क्षेत्र की आवश्यकता (वर्ग मीटर)
1. टमाटर (संकर) 300 75-100
2. टमाटर (मुक्त परागित) 500-700 100-125
3. बैंगन 400-700 100-125
4. मिर्च 500-600 100-150
5. शिमला मिर्च 500-1000 100-150
6. फूलगोभी (अगेती) 700-900 100-150
7. फूलगोभी (मध्यम) 400-500 100-150
8 . पत्ता गोभी 400-800 100-150
9. गॉंठ गोभी 750-1000 150-200
10. प्याज 8000-10000 400-500
तालिका 2ः रोपण योग्य सब्जियों में पौधों की आवश्यकता (प्रति हेक्टेयर)
फसल रोपण की दूरी (सेमी.) पौध की आवश्यकता
टमाटर (सीमित बढ़वार) 60 x 45 33,333
टमाटर (असीमित बढ़वार) 90 x 45 22,222
बैंगन (लम्बा) 60 x 45 33,333
बैंगन (गोल) 90 x 60 16,667
मिर्च 45 x 45 45,000
शिमला मिर्च 60 x 45 33,333
फूलगोभी 60 x 60 25,000
पत्तागोभी 45 x 45 45,000
गॉंठगोभी 30x 25 1,20,000
प्याज 15 x 10 6,00,000
बीज से फैलने वाली बीमारियों से बचाव के लिए बुवाई से पहले बीज शोधन अवश्य करें। बीज उपचार के लिए कैप्टान या थीरम 3 ग्राम दवा एक किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त रहती है। मिर्च व बैंगन के लिए कार्बेन्डाजिम (बवास्टिन 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज) अधिक लाभकारी पाया गया है। बुवाई से पूर्व दवा व बीज को बर्तन में डालकर अच्छी प्रकार से हिलायें ताकि दवा बीज के चारों तरफ चिपक जाये। कठोर छिलके वाले बीजों (करेला, तरबूज, टिण्डा आदि) को कैप्टान के 0.25 प्रतिशत घोल (2.5 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी) में भिगोकर बुवाई करना लाभप्रद रहता है। बीज भिगोने की अवधि छिलके की कठोरता पर निर्भर करती है। बीज भिगोने की अवधि करेले में 24-36 घण्टे, तरबूज, टिण्डा में 10-12 घण्टे, लौकी, तरोई व पेठा में 06-08 घण्टे तथा खीरा, ककड़ी, खरबूजा, कद्दू में 03-04 घण्टे है। जैविक बीज शोधन हेतु ट्राइकोडर्मा (6-10 ग्राम मिश्रित जैव पदार्थ एक किग्रा. बीज शोधन के लिए) लाभप्रद पाया गया है। जैव पदार्थ बीज में इस प्रकार से मिलाये कि यह बीज की सतह पर अच्छी प्रकार से चिपक जाये तत्पश्चात उसे थोडी देर छाया में सुखाकर बुवाई करें। यदि बीज काफी बारीक हो तो उनमें थोड़ी सी बालू मिलाकर बुवाई कर सकते हैं। बुवाई के बाद पौधशाला को अधिक तापक्रम व अधिक वर्षा से बचायें।
पौधशाला में बीज की बुवाई छिटकवा विधि तथा कतारों (पंक्तियों) में की जाती है जिनके संदर्भ में संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है-
(अ) छिटकवा विधि
पौधशाला में बीज बुवाई की यह अत्यंत प्रचलित विधि है जिसमें बीजों के एक समान न गिरने से कहीं पौधे घने एवं पतले और कहीं दूर-दूर हो जाते हैं। पौधों के घने होने से तने पतले व लम्बे होने के कारण जड़ों के पास से पौध गिरने की समस्या रहती है। ऐसे पौधों के रोपण से पौधों की मुख्य खेत में बढवार एवं पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। छिटकवा विधि से पौध तैयार करने की दशा में जमाव के बाद लगभग 1 सेमी. की दूरी पर एक ही पौध रखे शेष को निकाल दें।
(ब) पंक्तियों/कतारों में बीज की बुवाई
पौधशाला में बीज बुवाई की यह सर्वोत्तम विधि है। इस विधि से बीज बोने पर सभी पौधे लगभग एक समान दूरी पर रहने के कारण स्वस्थ व मजबूत होते हैं जिससे पदगलन बीमारी की संभावना कम रहती है। इस विधि में क्यारी की चौड़ाई के समानान्तर 5 सेमी. की दूरी पर 0.5 सेमी. गहरी पंक्तियॉं बनाकर इनमें लगभग 1 सेमी. की दूरी पर बुवाई की जाती है।
बीज बोने के उपरान्त उन्हें सूर्य के प्रकाश एवं वर्षा से बचाने के लिए कम्पोस्ट, मिट्टी व रेत के मिश्रण (1ः1ः1) से ढक देना चाहिए। ढकने वाले मिश्रण को 50-60 ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति कुंतल मिश्रण की दर से शोधित करने के बाद प्रयोग करने से फफॅूंदजनित बीमारियों का संक्रमण कम हो जाता है। बोने के पश्चात क्यारी का पलवार स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरपत या अन्य घास से करें ताकि नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे बीजों पर न पड़े। जैसे ही पचास प्रतिशत बीजों से सफेद धागेनुमा आकार (अॅंखुआ) दिखे क्यारी से पलवार हटा देना चाहिये अन्यथा पौध कमजोर होकर जड़ के पास से गिरने लगती है।
सिंचाई
यदि बीज के जमाव के लिए भूमि में पर्याप्त नमी न हो तो बुवाई से पूर्व हल्की सिंचाई करें। बुवाई के पश्चात हजारे/फुहारे की सहायता से सदैव हल्की सिंचाई करें ताकि अधिक पानी का प्रभाव बीज पर न पड़े। यदि पौधशाला की मिट्टी में उपजाऊपन अधिक हो और पौधा बहुत तेजी से विकास कर रहा हो तो सिंचाई कम करें। अनुकूलन के उद्देश्य से पौध उखाड़ने के 4-7 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर देनी चाहिये जिससे पौध कठोर हो जाती है तथा रोपाई के बाद अच्छी वृद्धि करती है किन्तु पौध उखाड़ने से पूर्व हल्की सिंचाई अवश्य करें ताकि जड़े न टूटने पायें।
खरपतवार नियंत्रण
क्यारियों से समय-समय पर आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालते रहें। खरपतवार हाथ से निकालें रासायनिक खरपतवारनाशी का प्रयोग कम से कम अथवा न करें।
पोषक तत्व प्रबन्धन
सामान्यतः सब्जियों की पौध तैयार करते समय उर्वरकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि पौध बढवार के समय पोषक तत्वों की कमी का आभास हो तो घुलनशील उर्वरक एन.पी.के. (15ः15ः15) की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर साप्ताहिक अंतराल पर पौधों पर छिड़काव करें। यदि पौधशाला की मिट्टी में उपजाऊपन अधिक हो और पौधा बहुत तेजी से विकास कर रहा हो तो सिंचाई कम करें।
पौध सुरक्षा
पौधशाला में पौध गलन/आर्द्र पतन/पद गलन (डेम्पिंग ऑंफ) प्रमुख रोग है। विभिन्न फफॅूंद इस रोग के कारक हैं। प्रभावित पौध जमीन की सतह से गल कर गिरने लगती है और सूख जाती है तथा दो-तीन दिनों में ही पौधशाला का अधिकांश भाग क्षतिग्रस्त हो जाता है। इससे बचाव के लिए बुवाई से पूर्व उपरोक्तानुसार बताई गई विधियों से भूमि एवं बीज शोधन अवश्य करें। पौधशाला में अधिक पानी न दें तथा पौधशाला में यदि पानी भरा हो तो उसे निकाल दें और इन्डोफिल एम-45 या जिनेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर दस दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। बीज जमाव के बाद प्रकोप होने की दशा में कैप्टान या थीरम 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर पौधशाला की मिट्टी को तर करें। यदि इस उपचार के बाद भी रोग कम न हो रहा हो तो मिट्टी, गोबर की खाद व बालू का मिश्रण कैप्टान या थीरम से उपचारित कर क्यारियों में पौधा जिस ऊॅंचाई से गिर रहा है उसके ऊपर तक डालें। इसके अतिरिक्त पौधशाला में माहू, जैसिड, सफेद मक्खी, थ्रिप्स की रोकथाम के लिए नीम का तेल 5 मिली. प्रति लीटर पानी अथवा डाइमेथोएट 2 मिली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
यदि पाला पड़ने का भय हो तो रात को क्यारी के दोनों तरफ लकड़ी का चौकोर ढॉंचा बनाकर छप्पर डालें। इसी प्रकार पौध को तेज धूप से भी बचा सकते हैं।