क्षेत्र एवं जिला पंचायतों की कार्य प्रणाली

क्षेत्र पंचायत की स्थापना
राज्य सरकार के गजट में विज्ञप्ति द्वारा प्रत्येक जिले के ग्राम्य क्षेत्र को खण्डों में विभाजित करती है। प्रत्येक खण्ड के लिए उस खण्ड (क्षेत्र) पंचायत, के नाम पर एक क्षेत्र पंचायत संगठित करने की व्यवस्था है।
क्षेत्र पंचायत रचना-क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख, जो इसका अध्यक्ष भी होता है तथा निम्नलिखित से मिलकर बनती है।
(क) खण्ड (क्षेत्र पंचायत) के समस्त प्रधान
(ख) निर्वाचित सदस्य, जो पंचायत क्षेत्र के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने जाते हैं। प्रत्येक प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या यथासाध्य दो हजार होनी चाहिए किसी क्षेत्र पंचायत के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र में किसी ग्राम पंचायत का प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र भाग सम्मिलित नहीं किया जाता है। 50 हजार तक ग्रामीण जनसंख्या वाले विकास खण्ड में 20 निर्वाचन क्षेत्र तथा 50 हजार से अधिक वाले विकास खण्डों में उत्तरोत्तर अनुपातिक वृद्धि के आधार पर किन्तु अधिकतम 40 प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र।
खण्ड क, ग और घ में उल्लिखित क्षेत्र पंचायत के सदस्यों को प्रमुख के निर्वाचन और उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के मामलों को छोड़कर क्षेत्र पंचायत की कार्यवाहियों में भाग लेने और उसकी बैठकों में मत देने का अधिकार।
जिला पंचायत का प्रत्येक निर्वाचित सदस्य जो खण्ड के निर्वाचन क्षेत्र का पूर्णतः या भागतः प्रतिनिधित्व करता है, क्षेत्र पंचायत की बैठकों में विशेष आमंत्री के रूप में भाग लेने और अपने विचार व्यक्त करने का हकदार हैं किन्तु उसे बैठकों में मत देने का  अधिकार  नहीं।
प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख चुना जाता है।
प्रत्येक क्षेत्र पंचायत, यदि उसे पहले ही विघटित नहीं कर दिया जाता है तो, अपनी प्रथम बैठक के लिए नियत दिनांक से पाँच वर्ष की अवधि तक बनी रहेगी।
बैठक कौन बुलायेगा-प्रमुख जब कभी भी वह उचित समझे क्षेत्र पंचायत की बैठक बुला सकता है। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों के कम से कम पंचमांश के लिखित अधियाचन, जो प्रमुख पर तामील किया जा चुका हो, अथवा प्राप्ति-पत्र सहित रजिस्ट्री डाक द्वारा क्षेत्र पंचायत को उसके कार्यालय पते पर भेजा जा चुका हो, ऐसे अधियाचन के तामील या प्राप्ति के दिनांक के एक महीने के भीतर क्षेत्र पंचायत की बैठक अवश्य बुलायेगा।
कोई बैठक आगामी या किसी पश्चात्वर्ती दिनांक तक स्थगित की जा सकती है और इस प्रकार स्थगित बैठक इसी प्रकार आगे भी स्थगित की जा सकती है।
क्षेत्र पंचायत द्वारा योजना तैयार करना-क्षेत्र पंचायत खण्ड की ग्राम पंचायतों की विकास योजनाओं को सम्मिलित करने के पश्चात् खण्ड के लिए प्रत्येक वर्ष एक विकास योजना तैयार करेंगी।
क्षेत्र पंचायत योजना पर विचार करेंगी और इसे किसी परिष्कार के साथ या बिना किसी परिष्कार के अनुमोदित कर सकती हैं।
खण्ड विकास अधिकारी क्षेत्र पंचायत द्वारा अनुमोदित योजना को जिला पंचायत को उस दिनांक से पहले, जो नियत की जाए, प्रस्तुत करेंगा।
क्षेत्र पंचायत का बजट तैयार और पारित करना-क्षेत्र पंचायत की कार्य समिति, वित्त एवं विकास समिति, शिक्षा समिति और समता उपबन्धों को ध्यान में रखते हुए आगामी 31 मार्च को समाप्त होने वाले वर्ष से अपने वास्तविक तथा प्रत्यशित आय-व्यय का एक पूरा लेखा तथा आगामी 1 अप्रैल से आरम्भ होने वाले वर्ष के लिए अपने आय-व्यय का बजट उस दिनांक के पूर्व, जो नियम द्वारा निश्चित किया जाए तैयार करेगी।
अनुमानित आय में राज्य सरकार से नियोजन और विकास के कार्यो के निमित्त प्राप्त अनुदानों को अलग प्रदर्शित किया जाएगा तथा व्यय के अनुमानों में यह अलग प्रदर्शित किया जाएगा कि इन अनुदानों को किस प्रकार व्यय किये जाने का प्रस्ताव है।
क्षेत्र निधि से आहरण और विरतण
क्षेत्र निधि में से धन का समस्त आहरण और उसका वितरण प्रमुख और खण्ड विकास आधिकारी द्वारा संयुक्त हस्ताक्षर से किया जायेगा।
जिला पंचायत की स्थापना -राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक जिले के लिए उस जिले के नाम पर एक जिला पंचायत का गठन। जिला पंचायत एक निगमित निकाय है।
जिला पंचायत की रचना
जिला पंचायत का एक अध्यक्ष जो उसका पीठासीन प्राधिकारी होता है, के साथ निम्नलिखित से मिलकर बनती है।
(क) जिले में समस्त क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख
(ख) जिला पंचायत के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्येक निर्वाचन द्वारा चुने गये निर्वाचित सदस्य।
(ग) लोकसभा के सदस्य और राज्य की विधान सभा के सदस्य जो उस निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं या जिनमें पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
(घ) राज्य सभा के सदस्य और राज्य की विधान परिषद् के सदस्य जो पंचायत के भीतर निर्वाचकों के रूप में रजिस्ट्रीकृत हैं।
खण्ड क, ग और घ में अल्लिखित जिला पंचायत के सदस्यों को अध्यक्ष के निर्वाचन और उनके विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव के मामलों को छोड़कर जिला पंचायत की कार्यवाहियों में भाग लेने और उसकी बैठकों में मत देने का अधिकार।
अध्यक्ष का निर्वाचन-प्रत्येक जिला पंचायत के निर्वाचन सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक अध्यक्ष का चुनाव। सामान्यतया जिला पंचायत का कार्यकाल पाँच वर्ष की अवधि का होगा।
जिला योजनाएं तैयार करना
जिला पंचायत जिले की क्षेत्र पंचायतों की विकास योजनाओं को सम्मिलित करने के पश्चात् जिले के लिए प्रत्येक वर्ष एक विकास योजना तैयार करेगी।
जिला पंचायत नियत रीति से प्रत्येक वर्ष ऐसे दिनांक के पूर्व, जो नियम द्वारा एतदर्थ निश्चित किया जाए, आगामी 31 मार्च को समाप्त होने वाले वर्ष के लिए अपने वास्तविक तथा प्रत्याशित आय-व्ययक का एक पूरा लेखा तथा आगामी एक अप्रैल से आरम्भ होन वाले वर्ष के लिए बजट अनुमान तैयार करेगी।बजट अनुमान तैयार करने में आय के अनुमान में राज्य सरकार से आयोजन और विकास कार्यो के निमित प्राप्त अनुदानों को अलग प्रदर्शित किया जाएगा तथा व्यय के अनुमानों में अलग प्रदर्शित किया जाएगा । उन अनुदानों को किस प्रकार व्यय किये जाने का प्रस्ताव है।
गाँव पंचायत चुनने वाली गांव सभा स्थायी होती है, गाँव के सभी 18 वर्ष के ऊपर के सदस्य गाँव सीा के सदस्य हैं। जबकि विधान सीायें और लोक सीा के सदस्य हर चुनाव के बाद बदलते रहते हैं। उनका कार्याकाल मात्र पाँच वर्षों का होता है।
जय प्रकाश नारायण ने सम्पूण क्रांति आन्दोलन के वक्त जनता को अपने चुने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के हक की बात कही थी यदि वे ठीक काम न कर रहे हों। सांसदों तथा विधायकों के लिए 'वापस बुलाने का अधिकार तो जनता को नहीं मिला, लेकिन गाँव सरकार में गाँव सभा को यह अधिकार मिल गया। यदि गाँव के लोग दो साल देखने के बाद पाते हैं कि ग्राम प्रधान ठीक से काम नहीं कर रहा है तो उसे हटा सकते हैं। उसका उत्तर प्रदेश पंचायती राज अधिनियम के अनुसार प्राविधान इस प्रकार है :-
'' प्रधान का निष्कासन -(1) ग्राम सभा विशेष रूप से बुलाई मीटिंग में जिसकी नोटिस 15 दिन पहले दी गई हो, प्रधान को ग्राम सभा के उपसि्ित और वोट देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से निकाल सकती है।
(1-ए) गांव सभा के सदस्यों की एक तिहाई संख्या उपरोक्त मीटिंग के लिए कोरम या न्यूनतम संख्या होगी।
(2) प्रधान को हटाने के लिए मीटिंग प्रधान का कार्यकाल शुरू होने के दो साल के अन्दर नहीं बुलाई जायेगी।
(3) अगर उपरोक्त उद्देश्य के लिए बुलाई गई मीटिंग कोरम के अभाव या दो तिहाई बहुमत के अभाव में असफल हो जाती है तो फिर ऐसी मीटिंग अगले एक साल तक नहीं बुलाई जा सकती।........''
लोकसभा तथा विधान दसभाओं में भी अपरोक्ष रूप से वापस बुलाने का अवसर लोगों को अनायास मिल जाता है मध्यावधि चुनावों के द्वारा। इस संबंध संसद और विधान सभाओं के सदन की अवधि के बारे में संविधान में वर्णन निम्न है :-
'सभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है, तो अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से पाँच वर्ष तक बनी रहेगी।' संविधान निर्माताओं ने विघटन की ऐसी संभावनाओं को पहले ही जान लिया था इसिलिए प्राविधान किया था, कि यदि सभा पहले ही विघटित नहीं कर दी गयी तो पाँच साल तक बनी रहेगी। अन्यथा वे संविधान में लिखते कि 'सभा पाँच साल तक बनी रहेगी।' यदि सभा में लोग जिन उद्देश्यों के लिए चुन कर गये हैं, वह काम न करे रहे हों, या कर पा रहे हों तो सभा पाँच वर्ष के पहले ही भंग कर दी जाये और मध्यावधि चुनाव हो जायें तभी अच्छा है। मध्यावधि चुनाव को लेकर भी जनता में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ हैं तथा भ्रम फैलाया गया है।
यह सच है कि सामान्य स्वस्थ जीवन्त और जिम्मेदार लोकतंत्र में यही अच्छा होता है कि विधान सभा और सांसद अपने पूरे कार्यकाल तक बनी रहें, लेकिन यदि लोकतन्त्र बीमार है, प्रत्याशी वोट खरीद रहे हैं, वोट जाति, धर्म, क्षेत्र या किसी अन्य सीमित स्वार्थ से प्रेरित होकर पड़ती है, तो अच्छे लोग राजनीति में प्रवेश करने से डरते हैं, जिलों में रहते हुए भी माफिया चुने जा रहें है, तब जल्दी-जल्दी होने वाले चुनाव और त्रिशंकु संसद और विधान सभाएं देश के लोकतन्त्र को पुनः स्वस्थ और क्रियाशील बनाने का एकमात्र स्वाभाविक उपाय हैं। कुछ लोगों का विचार है कि जल्दी-जल्दी होने वाले चुनाव देश के लिए हानिकारक हैं, लेकिन अपने लोकतन्त्र को शक्तिशाली बनाने के लिए और उसके अनेक अवांछित तत्वों को साफ करने के लिए, बारंबार चुनावों का होना कभी-कभी आवश्यक हो जाता है।
बार-बार होने वाले चुनाव हमारे लोकतन्त्र को थोड़ा बहुत सुधारने में मदद कर सकते हैं। ऐसे सभी चुनावों में नेताओं पर ही मुसीबत आती है, भार पड़ता है और वे शोर मचाने लगते हैं कि देश पर भारी विपत्ति आई है, क्योंकि वे लोग तो हर काम देश के नाम पर ही करते हैं। फलस्वरूप वे अपनी समस्या को देश की समस्या के रूप में प्रक्षेपित करते हैं। और सबसे मजेदार बात यह है, जिसके के लिये ये बार-बार होने वाले चुनाव सुअवसर हैं, वह जनता भी यह मानने लग जाती है कि ये उनके लिए खराब है।
ऐसा मीडिया के प्रक्षेपण के कारण होता है। प्रचार-प्रसार के जितने माध्यम हैं वे सब नेताओं की आवाज-में-आवाज मिला कर यही प्रचार करते हैं कि चुनाव खराब होते हैं, देश के लिए बोझ होते हैं। अब जनता जो है जब सब तरफ से यही सुनती है तो वह भी इस मिथ पर, भ्रम पर विश्वास करने लग जाती है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि चुनाव बहुत महँगें पड़ते हैं और राजकोष पर अनावश्यक भार डालते है।
चुनाव पर जो खर्च होता है वह योजना पर होने वाले खर्च की अपेक्षा बहुत मामूली होता हैं चुनाव में सरकार कुछ हजार करोड़ खर्च करती है जबकि योजना बनाने में प्रति वर्ष कई लाख करोड़ का खर्च आता है। और यह सच है कि कोई भी पंचवर्षीय योजना जनता के हित में अतना काम नहीं कर पाती जितना कि एक चुनाव कर देता है साधारण-से-साधारण जन के लिए इनका लाभ सचमुच छन कर पहुँचता है। धन सचमुच बहता है और जनता तक पहुँचता है। गाँवों के गरीब लोगों को और शहरों में झुग्गी-झोपड़ों में रहने वाले लोगों को बड़े फायदे हो जाते हैं। सड़कों गलियों की मरम्मत हो जाती है। टैक्सी चलाने वाले माइक और लाउड स्पीकर वाले, पैम्पलेट बाँटने वाले-सब को चुनाव के समय काफी पैसे मिल जाते हैं। कभी-कभी तो लोगों को साइकिल, हैण्डपम्प, साड़ियाँ और अन्य अनेक जरूरत की चीजें मिल जाती हैं। बार-बार होने वाले चुनाव भगीरथ हैं, जो भगवान शिव के मस्तक से गंगा को उतार कर साधारण जनता तक पहुँचाते हैं। लोगों को खुश होना चाहिए कि गंगा उन तक पहुँची, लेकिन खुश होने के बजाय वे दुःखी हो जाते हैं।
इस समय अनेक सदस्य, भविष्य में आने वाले चुनाव के लिए, अपने कार्यकाल में लगातार धन इकट्ठा कर रहे हैं। तो यदि उनका कार्यकाल बीच में ही खत्म कर दिया जाता है, तो भ्रष्टाचार भी उसी अनुपात में घट जाएगा। और भी बार-बार के चुनाव हमेशा त्रिशंकु संसद और विधानसभाओं के परिणामस्वरूप होते हैं। संसद और विधानसभा के इस प्रकार के सदनों में एक-एक सदस्य के भ्रष्टाचार की पोल खुलने की सम्भावना ज्यादा होती है। तानाशाही की वृत्ति त्रिशंकु सदनों में कम होती है, इसलिए वहाँ भ्रष्टाचार भी कम होता है। क्योंकि त्रिशंकु सदनों में भ्रष्टाचार का खुलासा अधिक होता है।
इन बार-बार वाले चुनावों में भारतीय चुनाव पद्धति को अपने लोकतन्त्र से सम्बन्धित तमाम बातों में नए अनुभव होते हैं। यह भारत के लोकतन्त्र की विशेषता रही है कि अलग-अलग मुद्दे अलग-अलग चुनावों में उठते रहे हैं, पर ऐसा कोई भी एक मुद्दा नहीं है, जो अनेक चुनावों में उठते रहे हैं, पर ऐसा कोई भी एक मुद्दा नहीं है जो अनेक चुनावों में लगातार उठता रहा हों। तमाम तरह के व्यर्थ और हानिकारक मसले भी उभरकर सामने आए हैं जैसे धर्म, जाति, वर्ग, विभेद, राजवंध आदि लेकिन अच्छी बात यह है कि मतदाता एक ही मुद्दे को एक बार में लेता है और अगले चुनाव और बाद में आने वाले दूसरे चुनावों में उन मद्दों को छोड़ देता है। धर्म, जाति, धन और बल के मुद्दे अब फीके पड़ रहे हैं। भाग्य से प्रत्येक अगले चुनाव में नए जोर पकड़ते हैं जो कि पिछले मुद्दो से भिन्न होते हैं, फलस्वरूप हम देखते है हैं कि खराब मुद्दे थे वे एक के बाद एक खुद ही समाप्तत होते जाते हैं। एक के बाद एक उनका आकर्षण खत्म हो रहा है जनता एक के बाद एक इन मुद्दों की व्यर्थता को समझ रही हैं अब समय आ गया है कि कुछ ही जल्दी-जल्दी चुनावों के बाद सारे नकारात्मक और निरर्थक मुद्दे खत्म हो जाएँगे और चुनावों मे सकारात्मक मसले, आम आदमियों की समस्याएँ, योग्यता, विशेष प्रतिभा और संवेदनशीलता से सम्बन्धित मसले भरपूर रहंगे।
धन और बल को चुनावों में क्यों महत्व प्राप्त होता है? पहले हम इस बात को समझ लें। दरअसल इनके अनेक कारण हैं :-
1. प्रत्याशी किसी भी तरह चुनाव जीतना चाहते हैं। किसी में भी धैर्य नहीं है।
2. चुनाव जीतने के बाद कितना धनद ाँव पर लग जाता है। सांसद व विधायक निधियों की अपार धनराशि के आकर्षण में बहुत लोग जी-जान से चुनाव लड़ते हैं।
3. जब से सरकार के विधि निर्माण और कार्यपालिका का पक्ष एक-सा हो गया है, संसद या विधान सभाओं का सदस्य बन जाने का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। स्थानान्तरण और नियुक्ति आपने आप में एक बड़ा लाभकारी उद्योग हो गया है। इसलिए वे सब लोग जो जल्दी से जल्दी कुबेर बनना चाहते है, वे विधान सभा और संसद में प्रवेश करते ही अपने लक्ष्य की सिद्धि का मार्ग पा जाते हैं।
4. मीडिया और विज्ञापन बहुत कम समय में, कम परिश्रम में चुनाव जिताने में बहुत सहायता करते हैं, हाँ वहाँ पैसा जरूर ज्यादा खर्च करना पड़ता ह। इसलिए जिनमें हैं कि पैसा लुटा देने से वे चुनाव जीत सकते है। अपने क्षेत्र में सेवा कार्य करने के विकल्प में पैसे ने जगह बना जी है।
5. जब आवश्यकता से कहीं अधिक धन खर्च किया जाता है, तब महाबली लोगों का सामने आना स्वाभाविक है। महावली लोगों को उचित पैसे देकर किराए पर ले लिया जाता है, जिससे कि निश्चित रूप् से चुनाव जीता जा सके।
6. महाबली लोगों ने जब देखा कि हमारी ही सहायतों से इन्होंने चुनाव जीता है तब उन्होंने स्वयं प्रत्याशी बनकर चुनाव में भाग लेने का निश्चय किया। और एक बार ऐसे लोग जहाँ प्रत्याशी बनकर आए कि इन महाबलियों की चुनाव में भागीदारी अनेक प्रकार से बढ़ जाती है।
धन और महाबलियों की आने वाले चुनावों में, यदि चुनाव बीच-बीच में कराए जाएँ, प्रभुता समाप्त हो जाएगी। इन बार-बार के चुनावों से, वे लोग जो राजनीति से इसलिए जुड़े हुए हैं कि वे पैसे कमा सकें- विचलित हो जाएँगे, क्योंकि उन्हें अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि राजनीति अब उतनी नफे वाली दुधारू गाय जैसी नहीं रह गयी है और जब इस प्रकार चुनाव यों बार-बार होने लगेंगे कि चुनाव में जो सारा धन लगेगा वह बाद में कमाई से बहुत ज्यादा होगा, तो पैसे को, व्यवसाय को ही सब कुछ समझने वाले लोग राजनीति से भागने लगेंगे और दूसरे-दूसरे ऐसे राजस्ते नफे वाले व्यवसाय को खोजेंगे, जिनसे जल्दी-से-जल्दी ज्यादा-से-ज्यादा पैसा कमा सकें। तो ये बार-बार चुनाव का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि इससे चुनावों मे जीतना और राजीनिति में रहना कम नफे वाला सिद्ध हो जाएगा। पैसे की लम्बी कमाई जहाँ चुनाव जीतने से हटी, माफिया वहाँ से अपने आप हट जाएगा। वे लोग भी दूसरे दुधारू क्षेत्र खोजेंगे।
इस प्रकार के शीघ्र चुनावों वाली पद्धति से अन्य लाभ भी हैं। एक बार जहाँ पैसे का प्रवाह विलीन हुआ, चुनाव प्रचार और चुनाव विज्ञापनों पर खर्च भी अपने आप कम होने लगेगा। चुनाव प्रचार में खर्च जब कम होगा, तो इसका नतीजा यह होगा कि जिन लोगों ने अपने क्षेत्रों में काम किया है उनके चुने जाने की सम्भावना बढ़ जाएगी। तब प्रत्याशियों के द्वारा किया गया कार्य ही केवल उनका विज्ञापन होगा। सही चुनाव पद्धति का प्रयोजन और लक्ष्य यही है। आजकल, अच्छे लोग निकी अपने चुनाव क्षेत्र में अच्छी छवि है, और जो वहाँ बहुत समय से रह रहे हैं, चुनाव इसलिए नहीं लड़ रहे हैं क्योंकि उनकी पूर्व धारणा है कि वे चुनाव नहीं जीत पाएँगें, कारण यही कि उनके पास पैसे और महाबली लोग उनका विज्ञापन और प्रचार करने के लिए नहीं हैं इस प्रकार, ये बार-बार के चुनाव बेहतर प्रत्याशियों और सदनों के लिए बेहतर सदस्यों के लिए रास्ता खोल देंगे।


आपने देखा होगा कि लोहे की छड़ या डंडे को यदि काटने की सुविधा न हो, तो कैसे उसे टुकड़ों में तोड़ा जाता है। यदि कई बार झुकाया जाए या सब तरफ से मोड़ा जाए, तो वह टूट जाती है। ठीक इसी तरह ये बार-बार के चुनाव इस प्रकार के लोगों को सब तरफ से घुमा देंगे झुका देंगे और अन्ततः वे भी टूट जाएँगे।
यह भी नेताओं और रानीतिक पार्टियों द्वारा बनाया गया मिथक या भ्रम है कि चुनाव के कारण दाम बढ़ते हैं चुनाव और महँगाई का अध्ययन करने पर आपकों पता लगेगा कि कम की तरफ होती है। पिछले कई सालों में खासतौर से अस्सी और नब्बे के दशक में देश ने कई चुनावन जल्दी-जल्दी देखे हैं, लेकिन चीनजों के दाम सामान्य रहे हैं। साठ और सत्तर क दशक में चुनाव अपने नियत समय पर हुए थे, लेकिन दाम तेजी से बढ़े थे। यदि चुनाव जल्दी-जल्दी नहीं होगे, तो भी दाम बढ़ते ही रहेंगे। महँगाई के, चुनावों के अलावा, अनेक अन्य कारण भी हैं। यह तो राजनीतिक पुरोधाओं का अपना स्वार्थ है कि वे जनता को चुनावों से डराते रहते हैं। इसलिए वे इसे महँगाई का कारण बताते हैं।
मिली जुली सरकारों के अनुभवों ने विश्व में हमारी छवि को बढ़ाया है। वे हमारे लोकतन्त्र को पूरी आस्था और प्रशंसा की दृष्टि से देख रहे हैं। अब उन्हें विश्वास है कि यह किसी भी प्रकार की स्थिति में स्थिर रहे सकेगी। मिल जुली सरकारों के कार्यकाल में भी विदेशी निवेश बहुत बढ़ा। अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर लोगों ने यह समझ लिया कि हमारा देश एक बाद एक संगठित सरकारों के आने पर और ताकतवर होकर सामने आया। इसलिए इस बारे में हमें चिन्तित नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के डर निहित स्वार्थों द्वारा इसलिए बिठा दिए जाते हैं, सिसे कि लोग इन बार-बार होने वाले चुनावों से डरते रहें, घृणा करते रहें।
जल्दी-जल्दी होने वाले चुनाव स्थायी समाधान नहीं है। निश्चय ही देश के पास एक दीर्घकालीन और अल्पकालीन परिप्रेक्ष्य और योजना होनी चाहिए। यह सही है कि सरकार में लगातार जल्दी-जल्दी होने वाले बदलाव दीर्घकालीन योजना के विकास में बाधा डालते हैं। लेकिन दवा के रूप में आवश्यक हैं। जनता को हर प्रार के चुनावों को, चाहे वह स्वाभाविक हो या मध्यावधि, स्वागत करना चाहिए, क्योंकि उनके लिए एक सुअवसर है। जैसे देश में तरह-तरह के त्यौहार मनाये जाते हैं, चुनाव सबसे बड़ा जरूरी और सकारात्मक राष्ट्रीय व संवैधानिक त्यौहार है।
अतः अब यदि गाँव के लोग जागरूक रहें तो यह हो ही नहीं सकता कि गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाई अच्छी न हो यह प्राइमरी हेल्थ सेन्टर पर डॉक्टर या दवा न मिलें, सही वक्त पर राशन न बँटे, पेंशन की राशियाँ सबको न मिले, गरीबों को आवास बनाने के पैसे उचित व्यक्ति को न मिले, नरेगा के पैसे का गलत इस्तेमाल हो या गाँव की सड़के, खडंजे खराब रहें या गाँव की छोटी-बड़ी समस्याओं का निदान न हो सके या गाँव मे हरियाली न रहे।
फिर भी अभी गाँव सरकारों को पूरी शक्ति और पूरे अधिकारी नहीं मिल पाये हैं। बहुत से मामलों में उन्हें राज्य सरकारों पर आश्रित रहना पड़ रहा है। इसके लिए अलग से प्रयास की जरूरत है कि गाँव सरकारें यथा सम्भव आत्म निर्भर हों। लेकिन जितने अधिकार मिल गये हैं उन्हें तो बखूबी निभाकर दिखाये ंतब और अधिक अधिकार पूरी ताकत, अधिकार और हक के साथ माँग सकें।
तमिल के महान राष्ट्रीय कवि सुब्रामान्यम भारती ने लिखा था।
'यदि एक भी व्यक्ति धरती पर भूखा सोता है तो पूरी धरती को नष्ट कर देना चाहिए।'
यदि सही लोग गाँव प्रधान और गाँव पंचायत के सदस्य चुन लिए गये तो यह हो ही नहीं सकता कि किसी गाँव प्रधान में कोई किसान आत्महत्या कर ले। यदि एक भी किसान आत्महत्या करता है तो यह सीध-सीधे गाँव प्रधान और पंचायत के सदस्यों की संवेदन हीनता का प्रतीक है।
74वें संविधान संशोधन विधयेक द्वारा नगरपालिकाओं के बारे में कानून बनाये गये हैं। उनके गठन, संरचना कार्यकाल, चुनाव, कर लगाने के अधिकार, आय-व्यय के हिसाब-किताब, सीटों के आरक्षण, जिला योजना के लिए समितियाँ, इन सब विषयों पर विस्तार से वर्णन किया गया है।
शपथ-पत्र


आप किसी प्रत्याशी को लिखित वोट देते हैं, वह भी मतदाता सूची में अपने नाम की रजिस्ट्री करा के, दस्तखत करके। तो फिर इतना तो करिए कि इस बार जो भी प्रत्याशी वोट मांगन आये उससे एक लिखित शपथ पत्र लीजिए, उसका हस्ताक्षर कराके ताकि भविष्य में यदि वह उन बातों को पूरा न करे, तो आप उससे सवाल कर सकें। बेहतर होगा कि आप सब मिलकर सामूहिक रूप से हर प्रत्याशी से यह शपथ पत्र लें-
1. संविधान का पालन करेंगे तथा आदर्शो का आदर करेंगे। उसमें लिखित मूल कर्तव्यों का पालन करेंगे।
2. जाति, धर्म, वर्ग वाद नहीं चलायेंगे, न जीतने के पहले, न जीतने के बाद।
3. सबके हित की बात सोचेंगे, करेंगे। जिन्होंने उन्हें वोट दिया है, उनके लिए भी, जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया, उनके लिए भी। जो हमारा विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी रहा है उसके प्रति भी न्यायपूर्ण ही व्यवहार करेंगे।
4. गाँव या पुरवा वाद भी नहीं चलायेंगे।
5. कोई विजय जुलूस या विजय का जश्न नहीं मनायेंगे। हारे हुए प्रत्याशियों के साथ मिल बैठकर गांव की उन्नति और खुशहाली की चर्चा करेंगे। विरोधियों के साथ मिलकर, उनकी शक्तियों का भी सहयोग लेते हुए विकास करेंगे।
6. सरकारी योजनाओं, पेंशन,राशन, मनरेगा, गरीबों के भवन निर्माण के धन का सही प्रयोग करेंगे।
7. हर बड़े मुद्दे पर गाँव सभा से राय लेंगे। समय-समय पर गाँव सभा की बैठकें बुलायेंगे।
8. ग्राम प्रधान तथा पंचायत के सदस्य मिल-जुल कर गाँव के विकास के लिए काम करेंगे।


सूचना का अधिकार


सूचना का अधिकार अधिनियम भारतीय नागरिकों के सशक्तीकरण की तरफ एक बड़ा कदम है। इससे व्यवस्था में खुलापन और पारदर्शिता आनी शुरू हुई। कोई भी व्यक्ति् किसी भी सरकारी संस्था से जनहित में कोई भी सूचना माँग सकता है और वह सरकारी अधिकारी एक निश्चित समय सीमा के अन्दर सूचना देने के लिए बाध्य है। सूचना देने से मना तभी किया जा सकता है जबकि यह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए माँगी जा रही हो यह सुरक्षा के कारणों से रोका जा सकता है। यदि वाजिब सूचना कोई अधिकारी नहीं देता है तो उच्चाधिकारी को अपील की जा सकती है। यदि फिर भी सूचना न मिले तो राज्य सूचना आयोग या केन्द्रीय सूचना आयोग में अपील की जा सकती है। सूचना न देने पर संबंधित अधिकारी को रोजना की दर से अर्थदण्ड लगता है, जो उसे अपनी तनख्वाह से देना पड़ता है। सूचना माँगने के लिए सादे कागज पर लिखकर ही सूचना माँगना पर्याप्त है। साथ में 10 रुपये का पोस्टल आर्डर, मनीआर्डर, ड्राट या चेक देना जरूरी है। चयह सूचना आप सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 6 में अन्तर्गत माँनेंगे।
अतः आप ग्राम विकास अधिकारी से सूचना के अधिकार के तहत पूछ सकते हैं कि किन-किन मदों के लिए कितना-कितना धन आया और कैसे-कैसे खर्च हुआ? कितनी-कितनी सड़कें बनी या खड़ंजे कहाँ-कहाँ लगे? बहुत सारी गड़बड़ियाँ तो सवाल पूछने मात्र से खत्म होने लगेंगी।
वैसे कई प्रदेशों में पारदर्शिता हेतु शासनादेश द्वारा पंचायतों को यह निर्देश दिया गया है
कि अपने कार्यो और खर्चो का ब्योरा प्रमुख स्थान पर प्रदर्शित करें, ताकि कोई भी उसकी जाँ-पड़ताल करे सकें।


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ब्राह्मण वंशावली

मिर्च की फसल में पत्ती मरोड़ रोग व निदान

ब्रिटिश काल में भारत में किसानों की दशा