मिश्रित खेती व मिश्रित फसल प्रणाली आज की आवश्यकता

1-मिश्रित एवं मिलवॉ खेती का इतिहास



 कृषि एवं ऋषि परम्परा हमारी संस्कृति एवं धरोहर रही है। प्राचीन काल से मिश्रित खेती हमारी कृषि प्रणाली का एक अभिन्न अंग रही है। हमारे पूर्वजों ने इसकी संकल्पना मौसम की विपरीत परिस्थितियों में फसल सुरक्षा के दृष्टिकोण से की थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता के एक प्रमुख स्थल कालीबंगा से प्राप्त जुताई के कूड़ों से पता चला है कि उस समय भी कई फसलों को एक साथ मिला कर खेती की जाती थी। मोहनजोदड़ो में गेहूं, जौ तथा चना की खेती एक साथ मिला कर की जाती थी। पतंजलि कृत ''भाष्य'' से भी 'मिलवां' खेती के प्रमाण मिले हैं। इसमें एक स्थान पर दो धान्यों यथा- उड़द या तिल मिला कर बोने का उल्लेख है। मिलिन्द पन्हों में तो पांच प्रकार की फसलों को एक साथ बोने का संकेत प्राप्त हुआ है। पूर्वी भारत में भी पांच प्रकार की फसलों को एक साथ बोने का संकेत प्राप्त हुआ है। पूर्वी भारत में मिलवां खेती का प्रचलन प्राचीनकाल से ही है, जिसे “असाढ़ी खेती” कहते हैं। असादी खेती के लिए वर्तमान खरीफ सबसे उपयुक्त समय है।


मिश्रित फसल प्रणाली खेती की आवश्यकता


उत्तर प्रदेश एवं भारत वारानी कृषि जीवन पद्धति हैं। हमारे देश में कृषिगत क्षेत्र का लगभग 65 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। प्राकृतिक आपदा जैसे अनावृष्टि के कारण-सूखा या अतिवृष्टि के कारण बाढ़ एवं अकाल के फलस्वरूप बहुधा फसलें बिल्कुल नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार की परिस्थिति में आर्थिक दृष्टिकोण से मिश्रित खेती सुरक्षा कवच का काम करती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो-या-दो से अधिक फसलें उगाई जाती हैं तो यह संभावना होती है कि यदि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाए तब भी दूसरी या तीसरी फसल बच सकती है और इस प्रकार उस खेत से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह सुरक्षा केवल मिट्टी की नमी के दृष्टिकोण से ही नहीं वरन कीट एवं व्याधियों के प्रकोप की स्थिति में भी मिश्रित खेती के द्वारा प्राप्त होती है। विशेष परिस्थितियों में मिश्रित खेती एवं मिलवा फसल  प्रणाली वरदान स्वरुप है।


3.मिश्रित खेती के मिश्रित लाभ


 कृषि एवं पशुपालन साथ-साथ करने को ही मिश्रित खेती कहते है। यही हमारी प्राचीन परम्परा एवं जीवन जीने का आधार रही है। मिश्रित खेती में मनुष्य, पशु, वृक्ष और भूमि एक सूत्र में बंध जाते हैं। सिंचाई की सहायता से भूमि, मनुष्य और पशुओं के लाभ के लिए फसलें और वृक्ष पैदा करती हैं और इसके बदले में मनुष्य और पशु खाद द्वारा भूमि को उर्वरक बनाते हैं। इस प्रकार की कृषि-व्यवस्था में प्रत्येक परिवार एक या दो गाय या भैंस, बैलों की जोड़ी और यदि सम्भव हो तो, कुछ मुर्गियां भी पाल सकता है। थोड़ी सी भूमि में शाक-तरकारियां उगा सकता है, खेतों में अनाज आदि की फसलें पैदा कर सकता है और मेड़ों के सहारे घर-खर्च के लिए या बेचने के लिए फल देने वाले वृक्ष उगा सकता है। जहां संभव हो, किसान अपने फार्म में छोटे से कुंड में मछलियां भी पाल सकता है तथा सिंघाड़ा की भी खेती कर सकता है।


अपने यहॉ कहीं पानी की अधिकता है और कहीं पानी की कमी है। जहां पानी की कमी नहीं है, उन क्षेत्रों में पेड़-पौधे लगाने की योजना इस प्रकार हो सकती है- खेत की मेंड़ों के सहारे पीछे की ओर, शीशम जैसे इमारती लकड़ी के वृक्ष और बबूल सामने की ओर कलमी आम, पपीता, अमरूद, नींबू और संतरा जैसे फलों के वृक्ष लगाने चाहिए। कृषक परिवार के लिए स्वादिष्ट शाक-तरकारी के रूप में काम आने वाले कटहल के भी एक-दो वृक्ष उगाए जा सकते हैं। जितने वृक्षों के नाम बताए गए है, वे सभी बौने वृक्ष हैं, इनकी छाया थोड़ी होती है। इसलिए फसलों को इनसे कोई विशेष हानि नहीं पहुंचाती। दो वृक्ष ऐसे हैं जो प्राचीन काल से ही भारतीयों को बड़े प्रिय रहे हैं। घर के बगीचे में इन दोनों वृक्षों को लगाना सभी पसन्द करते हैं। ये दो वृक्ष हैं- बेल और आमला। बेल के फल पाचन-क्रिया, पेट के विकारों में विशेषकर अतिसार और संग्रहणी जैसे रोगों में अति लाभदायक समझे जाते हैं। आमले के फलों में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होता है। ऑमला एवं आम के फलों से चटनी और मुरब्बे तैयार किए जाते है।


गन्ने के साथ लहसुन या प्याज की मिश्रित खेती बहुत लाभदायक है। उसमें गन्ने की पैदावार के अलावा प्याज व लहसुन से न केवल 50 से 60 हजार रुपए का अतिरिक्त लाभ होता है बल्कि कीड़ों की समस्या भी कम होती है।


अतः क्रॉपिंग सिस्टम के साथ-साथ फार्मिंग सिस्टम की  तरफ ध्यान देने की महती आवश्यकता है। कम्पोजिट फार्मिंग के साथ-साथ ऑफ सीजन सब्जी तथा हाईवैल्यू फसले ली जानी चाहिए। इस हेतु क्षेत्रवार मॉडल तैयार किया जाए जैसे प्रदेश में चार कृषि जलवायु क्षेत्र ही प्रमुख हैं। चारों क्षेत्रों के लिए चार मॉडल अपनाए जाएंगे। मसलन पश्चिमी यूपी, मध्य यूपी, पूर्वी यूपी तथा बुन्देलखण्ड। बुन्देलखणड में औद्यानिक फसलों की सम्भावनाएं अधिक है लिहाजा वहां व्यावसायिक तरीके से किन्नू, नींबू के साथ साथ मसालों की खेती पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। पूर्वी व पश्चिमी यूपी में कम्पोजिट खेती के तहत धान के खेतों में मछली पालन को बढ़ावा दिया जाएगा। नकदी फसलें जेसे ब्रोकली, मशरुम, हाइब्रिड टमाटर के अलावा ऑफ सीजन ग्रीन हाउस सब्जियां पैदा करने को प्रेरित किया जाएगा।


4-मिश्रित खेती के सिद्धांत



कालांतर में कृषि वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती के अनेक फायदों की पहचान की और मिश्रित खेती के कुछ मौलिक सिद्धांत हैं प्रतिपादित किए जो निम्नानुसार हैः-


1-उथली जड़ वाली फसलों के साथ गहरी जड़ वाली फसले ली जानी चाहिए। (Tap Root Vs Shallow roots)


विभिन्न फसलों की वृद्धि का क्रम, उनकी जड़ों की गहराई एवं उनके पोषक तत्वों की आवश्यकता अलग-अलग होती है। यदि दो ऐसी फसलें जैसे- आलू - मक्का,   हल्दी - अरहर,   मूंगफली -अरहर, जिनमें एक उथली जड़ वाली तथा दूसरी गहरी जड़ वाली हों, तो दोनों मिट्टी की अलग-अलग सतहों से नमी एवं पोषक तत्वों का भरपूर अवशोषण तथा उपयोग करती हैं। इस प्रकार जल एवं पोषक तत्वों के उपयोग की क्षमता बढ़ने से उनकी उपज बढ़ जाती है।


2.मल्टी स्टोरी क्रॉपिंग सिस्टम से सुर्य को प्रकाश का अधिकतम उपयोग सम्भव है।(Multistoreyed Cropping System)


विभिन्न ऊंचाइयों तक बढ़ने वाली फसलों के मिश्रण में कम बढ़ने वाली फसल ऐसी होनी चाहिए जिसे प्रकाश की कम तीव्रता की आवश्यकता होती हो। वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि कुछ फसलों का मिश्रण अधिक सफल होता है जबकि कुछ अन्य फसलों का मिश्रण उतना लाभ नहीं दे पाता। नारियल , केला , अदरक  फसल प्रणाली में सूर्य के प्रकाश का अधिकतम उपयोग होता है जिससे तीनों फसलों की अधिक उपज प्राप्त होती है। “हल्दी , मक्का , अरहर” भी उत्तम मिश्रण है। इससे फसल सधनता भी लगभग 300 प्रतिशत तक हो जाती है।


4- दलहनी फसलों के साथ खाद्यान्न फसलें एक दूसरे को लाभ पहुँचाती हैं।(Pulses Vs Food Grains)


सघन अनुसंधान से यह पता चला है कि कुछ फसलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं जो दूसरी फसलों के लिए अधिक लाभप्रद होता है। उदाहरण के लिए यदि दलहनी फसल मूंग को धान्य फसल ज्वार के साथ उगाया जाता है तो मूंग की जड़ों की गांठों में एकत्रित हो रहे नेत्रजन का कुछ हिस्सा ज्वार को मिलने से उसकी उपज बढ़ जाती है।


4.ऊंचे तथा मजबूत तनों वाली फसलों के साथ लता वाली फसलें (Crop with High and Strong Stem Vs Creeping Crops)


ऊंचे तथा मजबूत तनों वाली फसलों के साथ लता वाली फसलों को बोना उपज की दृष्टि से लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इस फसल मिश्रण में मजबूत तनों वाली फसलें लता वाली फसल की बेलों को ऊपर चढ़ने में मदद कर उनके फलन को काफी बढ़ा देती हैं जैसे ज्वार में झिंगनी या नेनुआ।


5.अधिक प्रकाश वाली फसलों के साथ कम प्रकाश वाली फसलों का संयोजन लाभदायक है।( High light Requiring Crops Vs Low Light Requiring Crop)


ऊंचे कद वाली फसलों की छाया ऐसी फसलों के लिए लाभप्रद हो जाती है जिन्हें कड़ी धूप की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे  अरहऱ-अनन्नास,  अरहऱ-हल्दी,   अरहऱ-अदरक इत्यादि।


विशेष मिश्रित फसले सहयोगी फसल को कीड़ों से बचाती है।


कुछ फसलों की उपस्थिति उसकी सहयोगी फसल को कीड़ों के आक्रमण से बचाती है। जैसे मक्का की फसल में ज्वार, लाल मिर्च में सौंफ तथा चना की फसल में धनिया की मिश्रित खेती कुछ ऐसे ही उपयोगी उदाहरण हैं जिसे आजमाया जाना चाहिए।





7.मिश्रित खेती बनाम अन्तरवर्ती खेती  का सिद्धान्त (Principle of Miued Cropping Vs Inter Cropping)


अन्तरवर्ती खेती मिश्रित खेती का सिद्धान्त का ही सुधरा हुआ रुप है। मिश्रित खेती से प्राप्त इन जानकारियों से नई संभावनाओं का उदय हुआ है। मिश्रित खेती केवल असिंचित क्षेत्रों की कृषि पद्धति थी जहां उसका एकमात्र उद्देश्य फसल को प्राकृतिक विभीषिकाओं से सुरक्षा प्रदान करना था। वैज्ञानिकों ने मिश्रित खेती को सिंचित क्षेत्रों में भी निरूपित किया। यह पाया गया कि बहुत सारी फसलों की प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि उन्हें अलग-अलग शुद्ध फसल के रूप में लगाया जाए तथा एक खेत में उन्हें सहयोगी फसलों के रूप में लगाया जाए तो सहयोगी फसल क्रम को अधिक लाभ प्राप्त होता है।


इस अनुसंधान के बाद अन्तरवर्ती खेती मात्र एक सुरक्षा का साधन न रहकर उपज एवं आय बढ़ाने की एक सक्षम विधि बन गई है। जब उद्देश्य बदले तो परिभाषाएं भी बदली। “मिश्रित खेती” एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार के बिना लगाने की पद्धति थी। इसके विपरीत “अन्तरवर्ती फसल” प्रणाली जिसका उद्देश्य उपज एवं आय में वृद्धि करना है, को एक ही खेत और एक ही मौसम में दो या दो से अधिक फसलों को साथ-साथ किसी निश्चित कतार क्रम में लगाए जाने की परिभाषा दी गई। यह अन्तरवर्ती फसल प्रणाली सिंचित अथवा असिंचित दोनों परिस्थितियों में लगाई जा सकती है। इस विधि में फसलों के बीच सभी साधनों जैसे-भूमि क्षेत्र, जल, पोषक तत्वों और सूर्य की रोशनी के लिए कम से कम प्रतिस्पर्धा हो, इसका ख्याल रखा जाता है। यह माडल अत्यन्त उपयोगी एवं लाभदायक है।


8.अन्तरवर्ती खेती बनाम समानान्तर खेती (Competitive Cropping Vs Supporting Crops)


मिश्रित खेती हो अथवा अन्तरवर्ती फसल प्रणाली, दोनों ही परिस्थितियों में फसलों का चुनाव पूर्णरूपेण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। यदि दो फसलें एक-दूसरे को लाभ पहुंचा सकती हैं तो कभी-कभी उनके एक साथ होने के कारण हानियां भी होती हैं। कुछ फसलों की जड़ों से अन्तःस्राव होता है जिसका प्रतिकूल प्रभाव कुछ फसलों पर पड़ता है। ऐसी फसलों को कभी भी मिश्रित अथवा अन्तरवर्ती फसल के रूप में नहीं लगाना चाहिए।


मिश्रित खेती के विकास के क्रम में कुछ अन्य परिस्थितियों की पहचान भी की गई जो इन्हें विशेषता प्रदान करती है। अतः ऐसी अन्तरवर्ती फसलों को एक नया नाम और एक नई परिभाषा दी गई। दूर-दूर की कतारों में लगाई जाने वाली फसलें जैसे अरहर, ईख, कपास इत्यादि की बुआई के बाद लंबे समय तक कतारों के बीच की जगह का कोई उपयोग नहीं हो पाता। ईख और अरहर की फसलों की प्रारंभिक वृद्धि दर बहुत ही कम होती है जिसकी वजह से कतारों के बीच खाली स्थान में खरपतवार निकल आते हैं जो मिट्टी से नमी एवं पोषक तत्व ग्रहण करने के साथ-साथ मुख्य फसल के पौधों को भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए विवश कर देते हैं और इसके फलस्वरूप फसल पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।


 यदि दो कतारों के बीच खाली स्थान का उपयोग ऐसी फसल लगाकर किया जाए जो कम दिनों में तैयार हो और उसकी प्रारंभिक वृद्धि दर तेज हो, तो यह फसल, मुख्य फसल से कोई प्रतिस्पर्धा किए बिना जीवनचक्र पूरा कर लेगी। मुख्य फसल जब तक अपनी तीव्र विकास अवस्था में पहुंचेगी तब तक दूसरी फसल कट जाएगी। इस प्रकार मुख्य फसल के पौधों को बिना हानि पहुंचाए हुए एक नई अतिरिक्त फसल इसी खेत से ली जा सकती है। इस पद्धति को समानान्तर खेती का नाम दिया गया। जैसे ईख की फसल में आलू, ईख में प्याज, ईख में धनिया, ईख में मगरैला, ईख में लहसुन, इत्यादि समानान्तर फसल के उदाहरण हैं


9.मिश्रित अन्तरवर्ती एवं समान्तर खेती में फसलों का चुनाव (Miued Inter Cropping Vs Parallel Cropping)


मिश्रित खेती, अन्तरवर्ती खेती एवं समानान्तर खेती किसानों के लिए अत्यंत ही लाभप्रद कृषि प्रणालियां हैं। परन्तु इन पद्धतियों के लिए फसलों एवं किस्मों का चुनाव तथा उनकी खेती की पैकेज प्रणाली को अत्यंत सावधानीपूर्वक अपनाया जाना चाहिए ताकि किस्मों का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। यथा संभव सब्जी एवं मसालों की फसलों को भी इस फसल प्रणाली में सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि बहुत सारी सब्जियां एवं मसाला फसलें काफी कम दिनों में तैयार होती हैं, छाया को सहन कर सकती हैं तथा ये अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध लाभ देती हैं।


घटती हुई कृषि योग्य भूमि और बढ़ती हुई आबादी को खिलाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाई जाए। मिश्रित खेती उपज बढ़ाने का एक प्रमुख माध्यम है। उन क्षेत्रों में जहां रोजगार के साधन कम हैं, वहां पर इसको अपनाने से लोगों को रोजगार अधिक मिलता है, और प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि होती है। मिश्रित, अन्तरवर्ती एवं समानान्तर खेती में सिंचित एवं असिंचित अवस्था में लगाई जाने वाली फसलों की एक तालिका नीचे दी जा रही है जो किसानों के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध होगी।


मिश्रित फसल प्रणाली


मिश्रित फसल प्रणाली में एक साथ कई फसलों को बुआई करते है जिससे आपदा की स्थिति में लाभ मिलता है तथा उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों यथा- जल, भूमि, प्रकाश इत्यादि का सदुपयोग होता है। 


1- सिंचित क्षेत्र के लिए मिश्रित फसल प्रणाली


1.रबी- मक्का-़आलू, 2. आलू़-बाकला, 3. रबी मक्का़-राजमा (मैदानी क्षेत्रों के लिए) 4. रबी मक्का़-धनिया (हरी पत्तियों के लिए), 5. शरदकालीन गन्ना़ मिर्च, 6. गन्ना-़धनिया, 7. गन्ना-़मगरैला,8. गन्ना़-लहसुन, 9. गन्ना़-आलू, 10. गन्ना़-गेहूं, 11. गन्ना-़अजवाइन, गग गन्ना़-मसूर,  बसन्त कालीन गन्ना-़भिण्डी, गन्ना-़मूंग,  12. गन्ना़-उड़द,   12. गन्ना़-मसूर 13. बसन्त कालीन 14. गन्ना-़मूंग,गन्ना उड़द,  12. प्याज़-अजवाइन, 13. गन्ना़-उड़द  14. प्याज़-भिण्डी,  15. प्याज़-मिर्च,  17.गन्ना-भिण्डी 18 सौंफ-़मिर्च।


2.असिंचित क्षेत्र के लिए मिश्रित फसल प्रणाली


अनाज तथा दलहनी फसलों का मिश्रण अधिक उपयोगी होता है तथा मिट्टी की उर्वराशक्ति भी बनी रहती हैः-


1.बाजरा़-मूंग,  2. बाजरा़-अरहर,  3. मक्का़-उड़द,  4. गेहूं-चना, 


2.5. जौ़-चना,  6. जौ़'मटर,  7. ज्वाऱ अरहर  एवं 8. गेहूं-मटर।


3.अनाज की फसलों का तिलहनी फसलों के साथ मिश्रण


1.गेहूं-सरसों, 2. जौ़ सरसों, 3. गेहूं-अलसी, 4. जौ़-अलसी


4.दलहनी फसलों की दलहनी तथा तिलहनी फसलों के साथ मिश्रण1. अरहऱ-मूंग, 2. अरहऱ-उड़द, 3. अरहऱ-मूंगफली 4. चना़-अलसी,



  1. 5. चना -सरसों, 6. मटऱ-सरसों, 7. मटऱ कुसुम


5.दो से अधिक फसलों का मिश्रण



  1. ज्वार-़अरहऱ-मूंग 2. बाजरा-़अरहऱ-मूंग   3. ज्वार-अरहऱ-उड़द  


पिछले पेज से आगे. 4-जौ़-मटर-़सरसों  5. चना़-सरसों-अलसी     6. चना-़अलसी़-कुसुम  7.  गेहूं-चना़-सरसों


वर्तमान में खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मिश्रित खेती अपना कर किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। आवश्यकता केवल मानसिकता बदलने की है। आज के सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में मिश्रित खेती किसानों के लिए एक वरदान है। इसे अपनाने से अधिक आमदनी के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति भी बरकरार रहती है। साथ ही साथ रोग व्याधियों का प्रकोप भी कम हो जाता है। किसान भाई मिश्रित एवं मिलवॉ खेती को अपनाकर अपना लाभ और आय दोगुना कर सकते है और विपदा के समय अपनी हानि भी कम कर सकते है।


 


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