पारिवारिक एकता से ही वसुधैव कुटुम्बकम् संभव
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल एसेम्बली ने दिनांक 20 सितम्बर 1993 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया है जिसमें सभी सदस्य देशों में प्रतिवर्ष 15 मई को 'अन्तर्राष्ट्रीय परिवार दिवस' के रूप में मनाने की बात स्वीकार की गयी है। संयुक्त राष्ट्र संघ का यह प्रयास सारे विश्व के परिवारों में पारिवारिक एकता तथा परिवार से संबंधित मूल्यों के महत्व की ओर ध्यान आकर्षित करता है। साथ ही परिवार की समस्याओं के समाधान के लिए उचित कदम उठाने के लिए प्रेरित करता है। यह दिवस सभी देशों के परिवारों की सहायता करने का एक सुअवसर है। हमारा मानना है कि पारिवारिक एकता से ही वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा साकार होगी।
(2)स्कूल सामयिक समस्याओं तथा निम्नपरिवारों से जुड़े हों
1. स्वयं के परिवार, 2. अपने स्कूल के अभिभावकों तथा टीचर्स के परिवार 3. राष्ट्र के परिवार तथा 4. विश्व परिवार से जुड़ा होना चाहिए। वसुधा किसी पराये का नहीं वरन् स्वयं हमारा अपना कुटुम्ब है। हमारा मानना है कि परिवार एक ईट के समान है। एक-एक ईट को जोड़कर विश्व रूपी भवन का निर्माण होता है। परिवार रूपी ईट मजबूत तथा टिकाऊ होने से विश्व भी मजबूत, एकताबद्ध, न्यायप्रिय तथा समृद्ध बनेगा। इसलिए यह कहा जाता है कि पारिवारिक एकता विश्व एकता की आधारशिला है।
मानवीय और आध्यात्मिक शिक्षा की व्यवस्था हो
(3)परिवार में तथा विद्यालय में बच्चों को भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ मानवीय और आध्यात्मिक शिक्षा भी मिलनी चाहिए। जब बालकों को परिवार और विद्यालय में मानवीय और आध्यात्मिक मार्गदर्शन नहीं मिलता है तब वे (ए) अव्यवस्था (बी) अन्याय तथा (सी) पीड़ा को झेलते हैं। नई तथा खुशहाल विश्व सभ्यता को निर्मित करने का कोई भी प्रयास आध्यात्मिकता को शिक्षा पद्धति में शामिल किये बिना सफल नहीं होगा। इसलिए हम अपने बच्चों की मानवीय एवं आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा को सहन नहीं कर सकते।
(4) परिवार आध्यात्मिक बनें :
पारिवारिक सम्बन्ध बहुत गहरे होते हैं। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आध्यात्मिक सम्बन्ध उनसे कहीं अधिक गहरे हैं, वे चिरस्थायी होते हैं और मृत्यु के पश्चात् भी रहते हैं, जबकि भौतिक सम्बन्ध, जब तक उन्हें आध्यात्मिक बन्धनों का आश्रय नहीं मिलता, केवल इसी जीवन तक सीमित रहते हैं। किसी भी अन्य प्रसंग की अपेक्षा परिवार की एकता को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। पूरी और निर्भीक चर्चा के साथ पारिवारिक परामर्श, जो संयम तथा संतुलन की आवश्यकता के प्रति जागृति से सबल हो, घरेलू विवाद के सभी रोगों को दूर करने की अचूक औषधि है। किसी परिवार में जहाँ एकता है उस परिवार के सभी कार्यकलाप बहुत ही सुन्दर तरीके से चलते हैं, उस परिवार के सभी सदस्य अत्यधिक उन्नति करते हैं। संसार में वे सबसे अधिक समृद्धशाली बनते हैं। ऐसे परिवारों के आपसी सम्बन्ध व्यवस्थित होते हैं, वे सुख-शान्ति का उपभोग करते हैं, वे निर्विघ्न और उनकी स्थितियाँ सुनिश्चित होती है। वे सभी की प्रेरणा के स्त्रोत बन जाते हैं। ऐसा परिवार दिन-प्रतिदिन अपने कद और अपने अटूट सम्मान में वृद्धि ही करता जाता है।
(5) विवाह वर-वधु तथा परमात्मा के बीच होता है
विवाह कभी भी दो व्यक्तियों के बीच नहीं होता है वरन् तीन के बीच अर्थात वर-वधु तथा परमात्मा के बीच होता है :- सभी धर्मो में सभी विवाह में परमात्मा को साक्षी मानकर वर-वधु विवाह की सारी प्रतिज्ञाऐं करते हैं कि वे अपने वैवाहिक जीवन में सभी निर्णय और कार्य आपसी परामर्श से इस प्रकार करेंगे कि उनका कोई भी कार्य ईश्वर को नाराज करने वाला न हो वरन् ईश्वर को प्रसन्न करने वाला हो। विवाह स्त्री-पुरूष का आत्मिक और हार्दिक मिलन है। मस्तिष्क और हृदय की आपसी स्वीकृति है। स्त्री-पुरूष दोनों का कर्तव्य है कि वे दोनां एक दूसरे के स्वभाव और चरित्र को समझें। दोनों के आपसी सम्बन्ध अटूट हों। ईश्वर को साक्षी मानकर एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार तथा एक अच्छा जीवन साथी बनने का उनका एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये। वैवाहिक बन्धन नैतिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होते हैं। वैवाहिक बन्धन में केवल शारीरिक बन्धन को महत्व न देकर आध्यात्मिक गुणों के द्वारा ईश्वर की निकटता के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। तथापि ईश्वर द्वारा निर्मित इस सृष्टि को आगे बढ़ाने में योगदान देना चाहिए। पति-पत्नी दोनों को ही एक-दूसरे के आध्यात्मिक विकास में सहायक बनना चाहिए ताकि उनसे उत्पन्न उनकी संतान भी आध्यात्मिक बन सके।
(6)पति-पत्नी को नित्यप्रार्थना करनी चाहिये और प्रतिदिन नीचे लिखी प्रतिज्ञायें पवित्र मन से दोहरानी चाहिए !
1.-आज से हम एक-दूसरे के साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर नये जीवन की सृष्टि करते हैं।
2.-पूरे जीवन भर एक-दूसरे के मित्र बनकर रहेंगे और बड़ी से बड़ी कठिनाईयां एवं विपत्तियों में एक-दूसरे को पूरा-पूरा विश्वास, स्नेह तथा सहयोग देते रहेंगे।
3.-जीवन की गतिविधियों के निर्धारण में एक-दूसरे के परामर्श को महत्व देंगे।
4.-एक-दूसरे की सुख-शांति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति, प्रतिभा, योग्यता, साधनों आदि को पूरे मनोयोग एवं ईमानदारी से लगाते रहेंगे।
5.-दोनों अपनी ओर से श्रेष्ठ व्यवहार बनाए रखने का पूरा-पूरा प्रयत्न करेंगे। मतभेदों और भूलों का सुधार शांति केसाथ करेंगे। किसी के सामने एक-दूसरे को लांछित एवं तिरस्कृत नहीं करेंगे।
6.-दोनों में से किसी के असमर्थ या विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्यपालन में रत्ती भर भी कमी नहीं आने देगे।
7.-कर्त्तव्यपालन एवं लोकहित जैसे कार्यो में एक-दूसरे के बाधक नहीं, सहायक बनेंगे।
8.-एक-दूसरे के प्रति पतिव्रत तथा पत्नीव्रत धर्म का पालन करेंगे। इसी मर्यादा के अनुरूप अपने विचार, दृष्टि एवं आचरण को विकसित करेंगे।
9.हम पति-पत्नी मिलकर प्रतिज्ञा करते हैंं कि हम सद्गृहस्थ के ईश्वरीय आदर्शो के आधार पर घर में सुख, सहयोग, एकता एवं शान्ति से भरा आध्यात्मिकता का वातावरण बनायेंगे और इसी का शिक्षण हम अपने प्रिय बच्चों को देंगे।
अभिभावकों के लिए कुछ विचारः-
(7) बच्चों की घर पर दी जाने वाली शिक्षाओं के सम्बन्ध में अभिभावकों के लिए कुछ विचारः- सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मनुष्य की ओर से अर्पित की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है - (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा की शिक्षाओं को जानकर उन पर चलने का बचपन से अभ्यास कराना। प्रत्येक बालक धरती का प्रकाश है। किन्तु यदि वह प्रकाश फैलाने का कारण नहीं बना तो वह अंधकार फैलाने का कारण बन जायेगा। इसलिए आध्यात्मिक तथा उद्देश्यपूर्ण शिक्षा को प्रारम्भिक अवस्था से ही सबसे अधिक महत्व देना चाहिए। माता-पिता अपनी संतान के लालन-पालन का प्रत्येक प्रयास उनके मानवीय तथा आध्यात्मिक होने के लिए करें, क्योंकि बच्चों को यदि यह महानतम अलंकरण प्राप्त नहीं हुआ तो वे अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे, जिसका तात्पर्य यह है कि वे ईश्वर की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे। वास्तव में, ऐसे बच्चे किसी के प्रति आदर भाव प्रदर्शित नहीं करेंगे और केवल अपनी मनमानी करेंगे।
(8) बच्चों का शिक्षण धैर्यपूर्वक करेंः
बच्चे की निन्दा न करें क्योंकि बच्चे धीरे-धीरे विकास करते हैं। इसलिए बच्चों का शिक्षण धैर्यपूर्वक तथा सतत् किया जाना चाहिए। लोगों के बीच बच्चों की बात-बात पर गलतियां निकालने से बचना चाहिए और उनकी सम्मान की भावना को ऊँचा उठाना चाहिए। बच्चों को सद्गुणों की ओर उदारतापूर्वक ले जायें। बच्चों को मानवीय पूर्णता के समस्त शिखर-लाभों के लिए निरन्तर प्रोत्साहित करना और उत्सुक बनाया जाना आवश्यक है। इस प्रकार वे अपने जीवन के प्रारम्भ से ऊँचे लक्ष्य रखने, उत्तम आचरण करने और पवित्र, शुद्ध तथा निर्मल बनने की सीख प्राप्त करेंगे। वे सभी बातों में शक्तिशाली संकल्प और लक्ष्य की दृढ़ता सीखेंगे। वे परिहास तथा तुच्छ चीजों में समय नहीं गंवायेंगे। वे पूरी सच्चाई के साथ अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर हों ताकि हर परिस्थिति में उनको अटल तथा सुदृढ़ पाया जाय।
(9) बच्चों को उच्च स्तर प्राप्त करने के लिए प्रेरित करेंः
उद्देश्यपूर्ण शिक्षा मनुष्य के आन्तरिक सार को बदल सकती है। शिक्षा का विराट प्रभाव तो होता ही है और इस शक्ति से, उनके अन्दर जो पूर्णताएं तथा क्षमताएं संग्रहीत हैं, उन्हें उजागर किया जा सकता है। गेहूँ का एक-एक दाना किसान द्वारा बोने से एक सम्पूर्ण फसल मिलती है और माली की देखभाल से एक बीज विशाल वृक्ष में विकसित हो जाता है। शिक्षक के प्रेमपूर्ण प्रयासों को धन्यवाद देना चाहिए कि प्राथमिक विद्यालय के बच्चे उच्चतम उपलब्धियों के स्तरों तक पहुँच सकते हैं। वास्तव में उसके उपकारों से कोई साधारण बच्चा अपने चुने हुए क्षेत्र का विश्व लीडर बनकर सारे विश्व में बदलाव ला सकता है।
(10)बच्चों के पवित्र,दयालु तथा प्रकाशित हृदय वाला बनायें
आपके लिए अनिवार्य है कि बच्चों का सम्पोषण ईश्वर-प्रेम से करो, उन्हें आध्यात्मिक विषयों की ओर प्रेरित करे, ईश्वरोन्मुख होने तथा उत्तम व्यवहार विधियाँ अर्जित करने के लिए, उत्तमोत्तम चारित्रिक गुण और मानव जगत के प्रशंसनीय सद्गुण एवं योग्यताएं प्राप्त करने और सश्रम विज्ञानों के अध्ययन के लिए उत्साहित करे, जिससे वे अपने बचपन से ही आध्यात्मिक, दिव्य और निर्मलता की सुरभियों के प्रति आकर्षित बनें और उनका लालन-पालन धार्मिक, स्वर्गिक एवं आध्यात्मिक शिक्षण के अन्तर्गत सम्पन्न हो सके।
(11) धरती पर जन्नत माता-पिता के कदमों में हैः
इस धरती पर हमारे भौतिक शरीर के जन्मदाता माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी संसार में सर्वोपरि हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। जिन माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी ने अपना सब कुछ लगाकर अपनी संतानों को योग्य बनाया वे संतानें जब बड़े होकर अपने वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी की उपेक्षा करती हैं तो उन पर क्या बीतती है? इस पीड़ा की अभिव्यक्ति कोई भुग्तभोगी ही भली प्रकार कर सकता है। वृद्धजनों का मूल्यांकन केवल भौतिक दृष्टि से करना सबसे बड़ी नासमझी है। वृद्धजन अनुभव तथा ज्ञान की पूंजी होते हैं। बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह का कहना है कि जब हमारे सामने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी तथा परमात्मा में से किसी एक का चयन करने का प्रश्न आये तो हमें माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी को चुनना चाहिए क्योंकि माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी की सच्चे हृदय से सेवा करना परमात्मा की नजदीकी प्राप्त करने का सबसे सरल तथा सीधा मार्ग है। साथ ही मानव जीवन के परम लक्ष्य अपनी आत्मा का विकास करने का श्रेष्ठ मार्ग भी है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि जिस घर में माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी का सम्मान होता है उस घर में देवता वास करते हैं। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी धरती के भगवान हैं। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी इस धरती पर परमात्मा की सच्ची पहचान हैं।
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