ओजोन परत धरती का सुरक्षा कवच, इसे बचायें
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ की सभी देशों से अपील
कुछ विकसित देश जैसे अमेरिका जो विश्व के समस्त उत्सर्जन का लगभग 25 प्रतिशत उत्सर्जन करता है इस विषय पर उदासीन रवैया अपनाये हुए है। विश्व के सभी देशों को पर्यावरण से जुड़ी इस विश्वव्यापी समस्या के प्रति समय रहते जागरूक होना चाहिए। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर भी विश्व के प्रत्येक नागरिक को भी इस समस्या के समाधान हेतु यथाशक्ति अपना योगदान देना चाहिए। हमें अंधाधुंध विकास की कीमत पर कोई भी ऐसी प्रक्रिया व्यवहार में लाने से बचना होगा जिससे पर्यावरण को हानि पहुंचती हो। तभी हम विश्व के दो अरब तथा 40 करोड़ बच्चों सहित आगे आने वाली पीढ़ियों तथा सारी मानव जाति को सुरक्षित भविष्य तथा स्थायी विकास का लाभ प्रदान कर पायेंगे। यह वायुमंडलीय ओजोन परत ऐसा कवच रूपी आवरण है, जो दिन में सूर्य की तेज किरणों से हमारी रक्षा और रात में पृथ्वी को अधिक ठंडी होने से बचाता है। ओजोन परत की क्षति एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय समस्या है जिसके निवारण के लिए आस्ट्रिया की राजधानी वियना में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का आयोजन किया गया, जो वियना कन्वेन्शन के नाम से जाना जाता है।
(2) ओजोन परत के क्षरण से होने वाले विनाश
ओजोन एक यूनानी शब्द है जो ओजो से बना है जिसका अर्थ है गंध। यह एक नीले रंग की तीखी गंध वाली गैस है।
प्रकृति ने हमारी पृथ्वी के चारों तरफ १५ से ३५ कि. मी. तक की ऊँचाई तक ओजोन गैस हमारी रक्षा के लिए छोड़ रखा है। वह सूर्य से निकलने वाली नुकसानदायक किरणों के साथ-साथ पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है तथा उन्हें पृथ्वी तक नहीं आने देती और अगर ऐसा न हो तो वह किरणें धरातल से सीधे संपर्क में आकर जीवों तथा मानवों की रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता का हृास करती ह,ै जिसके कारण मोतिया बिन्द और चर्म रोग (कैंसर) होनेे की आशंका काफी बढ़ जाती है। इसके साथ-साथ डी.एन.ए. में अवांछित विकार उत्पन्न होने से मानव शिशुओं में विकलांगता हो सकती है। पेड़-पौधों पर सूर्य की तेज किरणों का असर विशेष रूप से पत्तियों पर पड़ेगा। जिसके परिणामस्वरूप पत्तियों का आकार छोटा होगा व बीज के अंकुरण होने में अधिक समय लगेगा। इसके अतिरिक्त जन्तु-जगत की खाद्य श्रृंखला का संतुलन बिगड़ जायेगा।
(3) दक्षिण ध्रुव के देश सबसे अधिक प्रभावित
वर्तमान समय में ओजोन की कमी पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुला विचार-विमर्श हो रहा है और यह विचार-विमर्श तब तक चलेगा जब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो जाता। इसी बीच विश्व समुदाय को विश्वास में लेने के लिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण को हानि पहुँचाने से रोकने वाले सभी कदम गंभीरता से उठाए जायें और अगर ऐसा न हो पाया तो यह मनुष्य को स्वयं विवेकशील बनकर सोचना होगा कि प्रकृति उन्हें अत्यन्त ही विनाश से भरा दण्ड देगी। एक रिपोर्ट के अनुसार ओजोन क्षय का दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सारी पृथ्वी पर ही पड़ेगा। लेकिन दक्षिणी ध्रुव में स्थित कुछ देश जैसे-आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका का दक्षिणी भाग, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड आदि ओजोन परत की क्षति से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देश हैं। ज्ञात हो कि आस्ट्रेलिया में तो 1960 से ही ओजोन परत के पतली होने का खतरा मंडरा रहा है। संसार में सर्वाधिक चर्म रोगी आस्ट्रेलिया में हैं।
(4) अभी नहीं तो फिर कभी नहीं
ओजोन की उपस्थिति की खोज पहली बार 1839 ई0 में वैज्ञानिक सी.एफ. स्कोनबिअन के द्वारा की गई जब वह विद्युत स्फुलिंग का निरीक्षण कर रहे थे। लेकिन 1850 ई0 के बाद ही इसे एक प्रा.तिक वायुमंडलीय संरचना माना गया। 1913 ई0 में विभिन्न अध्ययनों के बाद एक निर्णायक सबूत मिला कि यह परत मुख्यतः वायुमंडल में स्थित है तथा यह सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है। 1920 के दशक में एक ऑक्सफोर्ड वैज्ञानिक जी.एम.बी. डॉब्सन ने सम्पूर्ण ओजोन की निगरानी (मानीटर करने) के लिए यंत्र बनाया। विश्व मौसम-विज्ञान संस्था ने ओजोन क्षीणता की समस्या को पहचानने और संचार में अहम भूमिका निभायी है। चूँकि वायुमंडल की कोई अंतर्राष्ट्रीय सीमा नहीं है, यह महसूस किया गया कि इसके उपाय के लिए समय रहते अंतराष्ट्रीय स्तर पर गम्भीरतापूर्वक तथा दृढ़तापूर्वक विचार होना चाहिए।
(5) विकासशील देश अन्य देशों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करें संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण योजना ने वियना संधि की शुरूआत की जिसमें 30 से अधिक राष्ट्र शामिल हुए। यह पदार्थों पर एक ऐतिहासिक विज्ञप्ति थी, जो ओजोन परत को नष्ट करते हैं तथा इसे 1987 ई0 में मॉन्ट्रियल में स्वीकार कर लिया गया। इसमें उन पदार्थों की सूची बनाई गई जिनके कारण ओजोन परत नष्ट हो रही है तथा वर्ष 2000 तक क्लोरोलोरो कार्बन के उपयोग में 50 प्रतिशत तक की कमी का आह्वान किया गया। यह स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि ओजोन परत की आशा के अनुरूप प्राप्ति पदार्थों के मॉन्ट्रयल प्रोटोकॉल के बिना असंभव है जो ओजोन परत को नष्ट करता है (1987) जिसने ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले सभी पदार्थों के उपयोग में कमी के लिए आवाज उठाया। विकासशील राष्ट्रों के लिए इसकी अंतिम तिथि 1996 थी। विकासशील देशों द्वारा इस दिशा में अब तक कोई सार्थक कदम नहीं उठाये गये हैं जो कि अत्यधिक चिन्ता का विषय है। साथ ही यह इस बात को दर्शाता है कि विश्व मेें कोई प्रभावशाली व्यवस्था नहीं है।
(6) ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले तत्व
पिछले कुछ वर्षों से वायुमंडल में ओजोन गैस की कमी को अनुभव किया गया है और जहाँ कहीं ओजोन की अधिक क्षति हुई है उसे ओजोन छिद्र के नाम से अलं.त किया गया है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा किए गये अनुसंधान से यह पता चला है कि दो ओजोन छिद्र हैं। एक छिद्र अण्टार्टिका महासागर के ऊपर तथा दूसरा छिद्र आर्कटिक महासागर के ऊपर। ओजोन को क्षति पहुँचाने वाले तत्व की दो अलग-अलग समूहों की पहचान की गयी हैं - १. क्लोरोफलूरो कार्बन तथा ष्. हेलंस ( अग्निशमन में प्रयुक्त)। ओजोन परत को काफी नुकसान हो चुका है। अब भी इन तत्वों पर रोक नहीं लगायी गयी तो यही कहना पड़ेगा कि अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गई खेत। फिर न कहना कुछ कर न सके। इसलिए समय रहते सारे विश्व को वसुधा की भावना से सम्मान देने वालों को कदम उठाना चाहिए।
(7) प्रकृति तथा पर्यावरण का सम्मान करना चाहिए
नेचुरल एनवार्यनमेंट, जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में एनवार्यमेंट या पर्यावरण कहते है, आज गंभीर चिंतन का विषय बन चुका है। पर्यावरण आखिर क्या है? हमारी धरती और इसके आसपास के कुछ हिस्सों को पर्यावरण में शामिल किया जाता है। इसमें सिर्फ मानव ही नहीं, बल्कि जीव-जन्तु और पेड़-पौधे भी शामिल किए गए है। यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं को भी पर्यावरण का हिस्सा माना गया है। हम कह सकते है कि धरती पर हम जिस किसी चीज को देखते और महसूस करते है, वे सब पर्यावरण का हिस्सा है। इसमें मानव, जीव-जन्तु, पहाड़, चट्टान जैसी चीजों के अलावा हवा, पानी, ऊर्जा, ध्वनि आदि को भी शामिल किया जाता है। जिस परम शक्ति ने हमें करोड़ों वर्ष पूर्व यह प्यारी धरती, पर्यावरण तथा जीवन सौंपा है, उस परम शक्ति का सम्मान हम सभी को प्रकृति तथा पर्यावरण के संरक्षण की भावना के साथ मिलजुल कर रहकर करना चाहिए।
(8) ओजोन परत के क्षरण पर अंकुश लगाना चाहिए
यदि विश्व के सभी लोग अपने आपसी मतभेदों को एक-एक करके कम करते जायें तथा एकता तथा शान्ति के आदर्शों के अन्तर्गत एकताबद्ध हो जायें तो विश्वव्यापी ओजोन परत की क्षरण की समस्या का समाधान हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में गैर-सरकारी संस्था (एन.जी.ओ.) का अधिकृत दर्जा प्राप्त विश्व का एकमात्र विद्यालय, गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड के अनुसार विश्व में एक ही शहर में सबसे अधिक बच्चों वाले स्कूल के रूप मंे दर्ज तथा यूनेस्को शान्ति शिक्षा पुरस्कार से सम्मानित सिटी मोन्टेसरी स्कूल ने अपना नैतिक उत्तरदायित्व समझते हुए विश्व के दो अरब बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य के लिए विगत 54 वर्षों से प्रयासरत् है। सिटी मोन्टेसरी स्कूल का मानना है कि विश्व एकता तथा विश्व शान्ति की शिक्षा ही इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
(9) न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्थाही समस्या का समाधान
आज सारा विश्व अलग-अलग टुकड़ों में बंटकर अपनी मनमानी कर रहा है। दूसरे राष्ट्र को जीतने तथा अपने को सुरक्षित बनाने के प्रयास में राष्ट्रों के बीच परमाणु शस्त्रों की होड़ लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसलिए विश्व के सभी राष्ट्रों का उत्तरदायित्व है कि वे विश्वव्यापी समस्याओं तथा राष्ट्रों के बीच के आपसी मतभेदों का समाधान शान्तिपूर्ण परामर्श करके निकाले। हमारा मानना है कि जब तक सारे विश्व में एकता और शान्ति का वातावरण निर्मित नहीं होगा तब तक विश्व के दो अरब तथा चालीस करोड़ बच्चों, आगे आने वाली पीढ़ियों तथा मानव जाति का भविष्य ओजोन परत के बढ़ते महाविनाश से सुरक्षित नहीं हो सकता। हमारे प्रत्येक स्थानीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास इस तरह के होने चाहिए जिससे एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था का गठन हो। इस दिशा में भारत को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्ति प्रदान कर विश्व संसद का स्वरूप प्रदान करने की पहल करनी चाहिए। भारत ही विश्व में एकता तथा शान्ति स्थापित कर सकता है। अब केवल अपने देश को सुरक्षित करना ही समझदारी नहीं वरन् पूरी धरती को सुरक्षित करना इस युग का सबसे समझदारी से भरा निर्णायक कदम होगा। वैश्विक युग में जब सारा विश्व सुरक्षित रहेगा तभी सभी देशों का अस्तित्व सुरक्षित रहेगा।