मानव जीवन सात घाटियों की यात्रा है!

अध्यात्म अनुभव का क्षेत्र है और इसकी प्रक्रियाओं व वैज्ञानिक प्रयोगों को प्रत्यक्ष दिखाया नहीं जा सकता, जैसे- हम वायु को देख नहीं सकते, केवल अनुभव कर सकते हैं, ठीक उसी तरह अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोग स्थूलजगत में देखे नहीं जा सकते, केवल उनके परिणामों को देखा जा सकता है। जीवन एक अन्वेषण है, जीवन एक खोज है, जीवन एक संकल्प है तथा एकमात्र अपनी आत्मा का विकास करने का सुअवसर है। इस युग के युगावतार बहाउल्लाह ने बताया है कि मानव शरीर आत्मा की यात्रा का यह संसार एक पड़ाव है मंजिल नहीं और मानव शरीर की यात्रा सात घाटियों को जागृत अवस्था में पार करने पर ही सफलतापूर्वक पूर्ण होती हैं। पहली अन्वेषण की घाटी है, दूसरी प्रेम की घाटी है, तीसरी ज्ञान की घाटी है, चैथी एकता की घाटी है, पांचवी संतृप्ति की घाटी है, छठी विस्मय की घाटी है तथा सातवी वास्तविक निर्धनता अर्थात पूर्ण शून्यता की घाटी है। इन सात घाटियों को पार करने में पथिक को दोनों ओर की गहरी खाईयों में गिरने से बचने के लिए हर पग पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए। जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव जीवन की यात्रा का हर एक पग अनेक बाधाओं से घिरा है। शरीर हमारा भौतिक है लेकिन हमारा चिन्तन आध्यात्मिक है। जीवन का लक्ष्य भौतिक जगत तक सीमित कर लेने से मनुष्य अज्ञान रूपी अन्धेरेे से घिर जाता है। इसलिए आइये, सात घाटियों की यात्रा में सम्भल कर एक-एक पग आगे बढ़े। 
(1) पहली घाटी-


'अन्वेषण या खोज' की घाटी:- हमें मानव जीवन क्यों मिला हुआ है? मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? सबसे पहले हमें इसका अन्वेषण या खोज करनी चाहिए। बहाई धर्म में बताया गया है कि हमंे मानव जीवन परमात्मा को जानने व उनकी शिक्षाओं पर चलने के लिए मिला हुआ है। परमात्मा को जानने का मतलब है कि परमात्मा द्वारा युग-युग में भेजे गये अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, एवं बहाउल्लाह द्वारा दी गई मर्यादा, न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग व हृदय की एकता की शिक्षाओं को जानना। अन्वेषण या खोज की घाटी को पार करने के लिए पथिक में धैर्य रूपी गुण का होना अति आवश्यक है। धैर्य रूपी गुण के अभाव में वह कभी भी इस घाटी को पार नहीं कर सकता। इस घाटी को पार करने वाले पथिक को अपने हृदय रूपी पूंजी को पूरी तरह से स्वच्छ रखते हुए अपने पूर्वजों के पथ का अनुसरण करना चाहिए। इस घाटी के सच्चे पथिक का ध्यान हमेशा अपने लक्ष्य की ओर रहता है। अपने लक्ष्य के अतिरिक्त उसे कुछ भी नहीं दिखता लेकिन इस घाटी को वह तब तक पार नहीं कर सकता जब तक कि वह अपनी भौतिक इच्छाओं को आध्यात्मिक इच्छाओं में रूपांतरित न कर दें। 
(2) दूसरी घाटी-


'प्रेम' की घाटी:- प्रायः लोग इस संसार से सुख व आनन्द खरीदना चाहते हंै। संसार में सारी सफलता का दर्शन करना चाहते हैं। संसार को ही अपनी मंजिल मानकर यहीं ठहर जाते हंै और परमात्मा से अपनी दूरी बना लेते हैं। जबकि प्रेम गली अति साँकरी, जा में दोउ न समाय, जब 'मैं' था तब हरि नहीं, जब हरि था 'मैं' नाहीं अर्थात इस घाटी के पथिक के हृदय में केवल परमात्मा के प्रति प्रेम होना चाहिए। इस घाटी के पथिक के हृदय में जब परमात्मा के प्रति अटूट प्रेम उत्पन्न हो जाता है तो इस अटूट प्रेम की शक्ति के प्रभाव से स्वयं की भौतिक इच्छायें खत्म हो जाती है। इसके बाद वह पथिक प्रभु इच्छा को ही अपनी इच्छा बनाकर जीवन जीने लगता है। हमें हर पल यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे हृदय में कहीं मेरी इच्छाओं के रूप में मेरा स्वार्थ न घुस जाये। हमारा मानना है कि जीवन यात्रा में हृदय प्रभु प्रेम से भरकर जीने से सब कुछ मिल सकता है और मेरा परम विश्वास है कि सब सौंप दो प्यारे प्रभु को सब सरल हो जायेगा। इस प्रकार इस घाटी के पथिक के हृदय में प्रभु प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सही ही कहा गया है कि पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए।     
(3) तीसरी घाटी-


'ज्ञान' की घाटी:-अन्वेषण तथा प्रेम की घाटियों को पार करने के बाद पथिक ज्ञान की घाटी में प्रवेश करता है। आत्मा की अमरता, परमात्मा की न्यायशीलता और मानव जीवन के कत्र्तव्यों की जिससे जानकारी प्राप्त होती है और जिससे सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, वही ज्ञान है। ज्ञान की दो धाराएँ हैं - एक को आजीविका प्राप्त करने वाली भौतिक शिक्षा तथा दूसरी को आत्मा, विवेक एवं संवेदना को ठीक रखने वाली आध्यात्मिक शिक्षा माना जाता है। आत्मज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की उपाधि दी गयी है; क्योंकि इससे ही मनुष्य को सच्चे सुख व परम शांति प्राप्त होती है। आध्यात्मिक ज्ञान को आत्मा का प्रकाश कहा गया है। विश्व के सारे मनुष्यों की आत्मा एक है और अखंड है। मनुष्य का स्वार्थ एवं अहंकार की संकुचित सीमा में अवरूद्ध होकर खंडित होना ही सारे कलह व संघर्षों का कारण है। जब तक इस बात को नहीं समझा जाएगा, तब तक मानव अपनी महानता से वंचित ही बना रहेगा। आध्यात्मिकता का संदेश यही है कि हम अपने भीतर दृष्टि डालें और अंतर्मुखी होकर इस अखंडता की अनुभूति करें। परमात्मा इस घाटी के पथिक को परामर्श देता है कि हे आत्मा के पुत्र मेरा प्रथम परामर्श यह है कि तू एक शुद्ध, दयालु एवं प्रकाशित हृदय धारण कर ताकि पुरातन, अमिट एवं अनन्त श्रेष्ठता का साम्राज्य तेरा हो। भूलवश आत्मा के ज्ञान के अभाव में हमारा बचपन, जवानी तथा बुढ़ापा यूँ ही बीत जाता है। इसलिए बालक को बाल्यावस्था से ही सभी पवित्र ग्रन्थों गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे-अकदस आदि की मूल शिक्षाओं का ज्ञान कराना चाहिए। इन पवित्र ग्रन्थों में परमपिता परमात्मा की ओर से सीधे ज्ञान अवतरित हुआ है। ये पवित्र ग्रन्थ ही हमारे सच्चे गुरू हैं।  
(4) चैथी घाटी-


'एकता' की घाटी:-  अन्वेषण, प्रेम तथा ज्ञान की घाटियों से गुजरने के बाद हम एकता की घाटी में प्रवेश करते हैं। एकता की घाटी का यात्री 'अनेकता' के आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है, वासना के लोकों से कहीं ऊपर उठकर वह एकत्व के स्वर्ग में पहुँच जाता है। दिव्य सृष्टि के रहस्यों को वह परमात्मा के कानों से सुनता है तथा परमात्मा के नेत्र से देखता है। एकता की घाटी का यात्री प्रभु-स्तुति में ही वह स्वयं अपनी संतुष्टि पाता है। स्वयं अपने नाम में वह प्रभु के नाम के दर्शन पाता है। उसका परमात्मा से एकाकार हो जाता है। उसका दृष्टिकोण ईश्वरीय हो जाता है। इसलिए हमें अपने स्वयं के जीवन में, अपने परिवार में, अपने राष्ट्र में तथा अपने सारे विश्व में शान्ति लानी है तो पहले हमें एकता के लिए प्रयास करना पड़ेगा। हमारा मानना है कि एकता के वृक्ष पर ही शान्ति के फल लगते हैं और विश्व एकता की शिक्षा की इस युग में सर्वाधिक आवश्यकता है। इसलिए हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि एक कर दे हृदय अपने सेवकों के हे प्रभु। निज महान उद्देश्य उन पर कर प्रगट मेरे प्रभु।
(5) पांचवी घाटी- '


संतृप्ति' की घाटी:-  मानव जीवन की यात्रा अन्वेषण, प्रेम, ज्ञान तथा एकता की घाटियों से गुजरने के बाद संतृप्ति की घाटी में प्रवेश करती है। भौतिक वस्तुओं से जीवन की वास्तविक प्यास नहीं बुझती है वरन् भौतिकता की अत्यधिक चाह जीवन की प्यास को और बढ़ा देती है। आत्मा की प्यास लोक हित की भावना से अपने कार्य-व्यवसाय को करने से बुझती है। जीवन को वास्तविक संतृप्ति प्राप्त होती है। हे जग के पालनहार प्रभु अपने सेवकों का आश्रय तू है। जिस प्रकार माँ के गर्भ में रहकर हमें अगले इस संसार में जिन अंगों की आवश्यकता होती है उन अंगों को माँ के गर्भ में रहकर ही प्रयासपूर्वक विकसित करते हैं। इन विकसित अंगों के सहारे संसार में रहकर हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उसी प्रकार संसार लोक में रहकर हमें अगले दिव्य लोक में जिन योग्यताओं की आवश्यकता होगी उसे इस संसार लोक में रहकर विकसित कर लेना चाहिए। अन्यथा अविकसित आत्मा प्रभु मिलन के अभाव में विलाप करेंगी तथा विकसित आत्मा प्रभु मिलन का सौभाग्य प्राप्त करेगी।   
(6) छठी घाटी-


'विस्मय' की घाटी:-  मानव जीवन की यात्रा अन्वेषण, प्रेम, ज्ञान, एकता तथा संतृप्ति की घाटियों से सफलतापूर्वक गुजरने के बाद विस्मय की घाटी में प्रवेश करती है। इस घाटी को पार करने वाला साधारण पथिक भी असाधारण बन जाता है। पथिक के प्रत्येक कार्य में परमात्मा के देवदूत हर पल उसकी सहायता करने के लिए उपस्थित रहते हैं। इस छठी घाटी में पथिक के समक्ष अनेक ईश्वरीय रहस्यों के एक के बाद एक प्रगट होने से उसे अद्भुत विस्मय की अनुभूति होती है। सम्पूर्ण जीवन विस्मय की सुखद अनुभूतियों से भर जाता है। वह गा उठता है - सबके गुण अपनी गलतियाँ सदा देखा करो, जिन्दगी की हूबहू झलकियाँ देखा करो। परमात्मा का अनुभव तो अतिव्यापक और परम विराट है। ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा नहीं। उन्होंने खूब कहा, बार-बार कहा, फिर भी जो कहना चाहते थे, वह नहीं कह पाए। इसीलिए उन्होंने अपनी सारी कथनी के निष्कर्ष में बस इतना ही कहा कि जो मैंने अनुभव करके जाना, उसे तुम अनुभव करके जान सकते हो। परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव कुछ ऐसा है, जिसे कागद की लेखी नहीं, आँखिन की देखी ही समझा सकती है। 
(7) सातवी घाटी-


परमात्मा के प्रति 'पूर्ण समर्पण' की घाटी:-जीवन यात्रा की अंतिम घाटी को पार करने की योग्यता परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण है। सातवीं घाटी को पार करने के बाद मनुष्य वास्तविक निर्धनता अर्थात शून्यता की स्थिति में पहुँच जाता है। हर क्षण वह अपनी वास्तविक निर्धनता तथा परमात्मा की सम्पन्नता की अनुभूति करता है। अपनी शक्तिहीनता तथा परमात्मा की शक्तिमानता की दिव्य अनुभूति करता है। ईश्वर के अतिरिक्त संकटों में सहायक और कोई नहीं है। ईश्वर ही है संकटमोचन एवं सर्वज्ञाता। शरीर की पीड़ा, लिप्सा, इच्छा, मोह तथा उपस्थिति समाप्त हो जाती है। केवल आत्मा का बोध रह जाता है। जीवन यात्रा के इस सातवें पडाव में बस केवल एक ही गीत, दर्शन, संकल्प तथा ध्येय रह जाता है। तू ही तू, तू ही तू, हर शह में बसा है तू। पथिक का चिन्तन सर्वोच्च स्तर को प्राप्त करता है। पथिक के चिन्तन, हृदय तथा आत्मा में वसुधैव कुटुम्बकम् का दिव्य दर्शन साकार रूप ग्रहण करता है। पथिक के हृदय की प्रत्येक धड़कन तथा कार्य सारी वसुधा को कुटुम्ब बनाने के लिए होते हैं। 
यह संसार आत्मा के विकास का प्रशिक्षण केन्द्र है:-यह संसार आत्मा के विकास का प्रशिक्षण केन्द्र है। सात घाटियों की यात्रा में सम्भल कर एक-एक पग आगे बढ़ाकर हम आत्मा के विकास की योग्यता प्राप्त करते है। संसार में अंतिम सांस तक लोक कल्याण की भावना से जीते हुए अपनी आत्मा का विकास करना ही जीवन का उद्देश्य है। इसके अलावा संसार में रहने का कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है। इस संसार में हमारी पूरी जीवन यात्रा लोक कल्याण की कर्म भूमि है। जीवन में परम विश्राम असली घर (दिव्य लोक) लौटकर ही मिलना है। परमात्मा ने इस सारी सृष्टि की रचना सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य की आत्मा के विकास के उद्देश्य से ही की है। परम आत्मा में मिलन ही हमारी आत्मा की मंजिल है। विकसित आत्मा को ही इस मिलन रूपी मंजिल का परम सौभाग्य प्राप्त होता है। इस युग के युगावतार बहाउल्लाह कहते हंै कि हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक श्रवणेंद्रीय, अगर सदैव पवित्र और निर्दोष बनी रही हो तो अवश्य ही प्रत्येक दिशा से उच्चरित होने वाले इन पवित्र शब्दों को हर समय सुनेगी। सत्य ही, हम ईश्वर के हैं और उसके पास ही वापस जायेंगे। परमात्मा इस सृष्टि का रचनाकार है वह अपनी प्रत्येक रचना से प्रेम करता है। परमात्मा का धर्म लोक कल्याण है। परमात्मा के पुत्र होने के नाते हमारा धर्म अर्थात कर्तव्य भी लोक कल्याण है। इस सारी सृष्टि का रचनाकार एक परमपिता परमात्मा है इस बात को स्वीकारने में ही मानव जाति का हित निहित है। हम मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारा किसी भी पूजा स्थल से पूजा, इबादत, प्रार्थना, सबद-कीर्तिन करें उसे सुनने वाला परमपिता परमात्मा एक है। 


 


 


 


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