किसानों की दुगुनी आय करने की कवायद


सरकार की मंशा है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दुगुनी हो जाय। संकल्प सराहनीय है, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा होता दिखाई नहीं है। इसके वाजिब कारणों की संक्षेप चर्चा यहां की जा रही है।

 

भारत में अनाज का उत्पादन बढ़ तो रहा है परन्तु यह वृद्धि सन्तोष जनक नहीं है। देखा जाय तो फसलों की उत्पादकता स्थिर सी हो गयी है। इसका मुख्य कारण मृदा उत्पादकता का घटना  अर्थात् मिट्टी के गुणों में अनवरत् गिरावट)। उर्वरकों का असन्तुलित प्रयोग अर्थात् यूरिया व डीएपी आधारित खेती से पोटैशियम, गंधक, मैगनीशियम,  जिंक, मैंगनीज, बोरान का मृदा भंडार से दोहन हुआ और मिट्टी में इनकी कमी के कारण उर्वरकों की क्षमता 70 के दशक की तुलना में आज आधी हो गयी है। किसानों द्वारा कार्बनिक खादों के निर्माण और प्रयोग की उपेक्षा हो रही है, हरीखाद, फसल अवशेष, जैव उर्वरक, फसल चक्र, सही जल प्रबंधन जैसे उपाय अमल में लाए नहीं जा रहे है। इन परिस्थितियों में ऐसा नहीं लगता कि 2022 तक सब सुधर जाएगा।

 

 जलवायु परिवर्तन से खेती हर वर्ष किसी न किसी नयी समस्या से कुप्रभावित हो रही है और किसान असहाय यह सब झेलते हुए देश को पर्याप्त खाद्यान्न मुहैया करा रहा है। परन्तु इन समस्याओं के कारण उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है। 

 

बाजार की सुबिधा के अभाव से भी उसे दो हाथ करना पड़ता है। धान और गेहूं की सरकारी खरीद तो हो रही है, परन्तु अनेकों ऐसे खाद्यान्न, तेलहन, सब्जी, फल, मसालों आदि की कीमत का यह हाल है कि जब अधिक पैदा हो जाय तो भाव गिर जाते हैं और जब न पैदा हो तो वैसे मर जाता है। यही नहीं, छुट्टे जानवर की समस्या इतनी बिकट है  कि झुंड के झुंड पशु किसानों की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं। 

 

ऐसा लगता है कि सरकार किसानों की आमदनी दुगुनी करने की सही रणनीति से भटक गयी है। क्योंकि सरकार अब 400 साल पुरानी खेती अर्थात् देशी बीज, देशी खाद, देशी बाजार आधारित परम्परागत खेती की ओर उन्मुख होने का इरादा बना रही है। यही नहीं, सरकार जीरो बजट खेती की चर्चा में भी उलझती दिखाई देती है। जीरो बजट खेती को लेकर आशंकाओं को दूर किए बिना इसे अपनाना सही नहीं होगा। इस पर ब्यापक चर्चा की आवश्यकता है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि क्या परम्परागत खेती से देश की खाद्यान्न सुरक्षा की रक्षा हो पाएगी, किसानों की आय दुगुनी दुगुनी तच दूर, क्या इसे बनाए रखना भी सम्भव होगा।

 

सही अर्थों में न तो उर्वरक आधारित खेती से काम चलेगा और न ही परम्परागत खेती से। आवश्यकता इस बात की है कि गत पांच दशकों की शोध उपलब्धियों द्वारा विकसित आधुनिक कृषि तकनीकों के साथ ही अपनी पुरानी उत्कृष्ट कृषि विधियों को परिस्थितियों के अनुसार अमल में लाया जाय।

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