मैं कुआँ हूँ
बंधुवर, एक कविता: 'मैं कुँआँ हूँ':
वे सब बारी-बारी मेरे पास आते हैं
मुझमें लंगर डालकर पानी भरते हैं.
बैलों का जुआँ हूँ, हाँ मैं कुँआँ हूँ.
कोई नहाता, प्यासा पानी पी जाता।
पशु-पक्षी सब आते हैं.
अपनी जरुरत का सब पी जाते हैं.
मैं कुँआँ हूँ
शादी ब्याह की रस्मों से लेकर
लोग मुझमें कूद जाते हैं,
जो आत्मह्त्या करते हैं,
उन्हें मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ.
मरने से पहले उनसे अंतिम बार बात की है.
जो बच गये उनकी भी बातें कीं.
वे सच बोलने से तब भी डर रहे थे.
मैं कुँआँ हूँ
मैं सभी को अपने में समां सकता हूँ.
कल जब हैण्डपम्प लग गए थे
आदमियों ने यहाँ आना छोड़ दिया,
परन्तु पक्षियों ने आना नहीं छोड़ा.
कइयों ने तो घोंसले बना लिए थे.
आज जब हैण्डपम्प बंद हो गये हैं,
लोग कुँएँ तक आते हैं
पर निराश लौट जाते हैं.
कुँएँ पर कब्जा हो गया है.
अपनी विरासतों, कुएँ और तालाबों को
हमने पटने दिया है और कुछ हमने पाट दिए हैं.
सड़कों और गलियों में बने गड्ढों को भुला दिया।