भिंडी की खेतीः उत्पादन तकनीक और देख -भाल


कई तरह के प्रोटीन व पोषक तत्वों से भरपूर भिंडी उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। भिंडी भारत के कई राज्यों में प्रमुखता से उगाई जाती है। भिंडी की खेती हरियाणा,पंजाब बिहार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, आसाम आदि क्षेत्रों में प्रमुखता से की इसमें विटामिन ए तथा सी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।जाती है। भारत में भिंडी की खेती लगभग 485 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में उगाई जाती है। जिसमें से लगभग 5730 हजार टन प्रतिवर्ष भिंडी का उत्पादन किया जाता है। भिंडी के फल में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है। भिंडी का फल कब्ज रोगी के लिए विशेष गुणकारी होता है। अधिक उत्पादन तथा मौसम की भिंडी की उपज प्राप्त करने के लिए संकर भिंडी की किस्मों का विकास कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किया गया हैं। ये किस्में यलो वेन मोजकै वाइरस रोग को सहन करने की अधिक क्षमता रखती हैं। इसलिए वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर उच्च गुणवत्ता का उत्पादन कर सकते हैं।
भूमि व खेत की तैयारी
भिंडी के लिये दीर्घ अवधि का गर्म व नम वातावरण श्रेष्ठ माना जाता है। बीज उगने के लिये 27-30 डिग्री सेग्रे तापमान उपयुक्त होता है तथा 17 डिग्री सें.ग्रे से कम पर बीज अंकुरित नहीं होता। यह फसल ग्रीष्म तथा खरीफ, दोनों ही ऋतुओं में उगाई जाती है। भिंडी को उत्तम जल निकास वाली सभी तरह की भूमियों में उगाया जा सकता है। भूमि का पी0 एच मान 7.0 से 7.8 होना उपयुक्त रहता है। भूमि की दो-तीन बार जुताई कर भुरभुरी कर तथा पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए।
उत्तम किस्में
पूसा ए-4-


यह भिंडी की एक उन्नत किस्म है। यह प्रजाति 1995 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान,नई दिल्ली द्वारा निकाली गई है।
यह एफिड तथा जैसिड के प्रति सहनशील है।
यह पीतरोग यैलो वेन मोजैक विषाणु रोधी है।
फल मध्यम आकार के गहरे, कम लस वाले, 12-15 सेमी लंबे तथा आकर्षक होते हैं।
बोने के लगभग 15 दिन बाद से फल आना शुरू हो जाते है तथा पहली तुड़ाई 45 दिनों बाद शुरु हो जाती है।
इसकी औसत पैदावार ग्रीष्म में 10 टन व खरीफ में 15 टन प्रति है।
परभनी क्रांति-यह किस्म पीत-रोगरोधी है।
यह प्रजाति 1985 में मराठवाड़ाई कृषि विश्वविद्याल य, परभनी द्वारा निकाली गई है।
फल बुआई के लगभग 50 दिन बाद आना शुरू हो जाते हैं।
फल गहरे हरे एवं 15-18 सेंमी लम्बे होते हैं।
इसकी पैदावार 9-12 टन प्रति है।
पंजाब-7
यह किस्म भी पीतरोग रोधी है। यह प्रजाति पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा निकाली गई है। फल हरे एवं मध्यम आकार के होते हैं। बुआई के लगभग 55 दिन बाद फल आने शुरू हो जाते हैं। इसकी पैदावार 8-12 टन प्रति है।
अर्का अभय
यह प्रजाति भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा निकाली गई हैं।
यह प्रजाति येलोवेन मोजेक विषाणु रोग रोधी हैं।
इसके पौधे ऊँचे 120-150 सेमी सीधे तथा अच्छी शाखा युक्त होते हैं।
अर्का अनामिका
यह प्रजाति भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर द्वारा निकाली गई है।
यह प्रजाति येलोवेन मोजेक विषाणु रोग रोधी है।
इसके पौधे ऊँचे 120-150 सेमी सीधे व अच्छी शाखा युक्त होते हैं।
फल रोमरहित मुलायम गहरे हरे तथा 5-6 धारियों वाले होते हैं।
फलों का डंठल लम्बा होने के कारण तोड़ने में सुविधा होती है।
यह प्रजाति दोनों ऋतुओं में उगाई जा सकती हैं।
पैदावार 12-15 टन प्रति है हो जाती हैं।
वर्षा उपहार
यह प्रजाति चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा निकाली गई है।
यह प्रजाति येलोवेन मोजेक विषाणु रोग रोधी हैं।
पौधे मध्यम ऊँचाई 90-120 सेमी तथा इंटरनोड पासपास होते हैं।
पौधे में 2-3 शाखाएं प्रत्येक नोड से निकलती हैं।
पत्तियों का रंग गहरा हरा, निचली पत्तियां चैड़ी व छोटे छोटे लोब्स वाली एवं ऊपरी पत्तियां बड़े लोब्स वाली होती है।
वर्षा ऋतु में 40 दिनों में फूल निकलना शुरु हो जाते हैं व फल 7 दिनों बाद तोड़े जा सकते हैं।
फल चैथी पांचवी गाठों से पैदा होते हैं। औसत पैदावार 9-10 टन प्रति हे. होती हैं।
इसकी खेती ग्रीष्म ऋतु में भी कर सकते हैं।
हिसार उन्नत
यह प्रजाति चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा निकाली गई है।
पौधे मध्यम ऊँचाई 90-120 सेमी तथा इंटरनोड पासपास होते हैं।
पौधे में 3-4 शाखाएं प्रत्येक नोड से निकलती हैं। पत्तियों का रंग हरा होता हैं।
पहली तुड़ाई 46-47 दिनों बाद शुरु हो जाती है।
औसत पैदावार 12-13 टन प्रति है होती हैं।
फल 15-16 सेंमी लम्बे हरे तथा आकर्षक होते हैं।
यह प्रजाति वर्षा तथा गर्मियों दोनों समय में उगाई जाती हैं।
वी.आर.ओ.-6
इस किस्म को काशी प्रगति के नाम से भी जाना जाता है।
यह प्रजाति भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान,वाराणसी द्वारा 2003 में निकाली गई हैं।
यह प्रजाति येलोवेन मोजेक विषाणु रोग रोधी हैं।
पौधे की औसतन ऊँचाई वर्षा ऋतु में 175 सेमी तथा गर्मी में 130 सेमी होती है।
इंटरनोड पासपास होते हैं।
औसतन 38 वें दिन फूल निकलना शुरु हो जाते हैं ।
गर्मी में इसकी औसत पैदावार 13.5 टन एवं बरसात में 18.0 टन प्रति हे. तक ली जा सकती है।
बीज की मात्रा व बुआई का तरीका





सिंचित अवस्था में 2.5 से 3 किग्रा तथा असिंचित दशा में 5-7 किग्रा प्रति हेक्टेअर की आवश्यकता होती है। संकर किस्मों के लिए 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की बीजदर पर्याप्त होती है। भिंडी के बीज सीधे खेत में ही बोये जाते हैं। बीज बोने से पहले खेत को तैयार करने के लिये 2-3 बार जुताई करनी चाहिए। वर्षाकालीन भिंडी के लिए कतार से कतार दूरी 40-45 सें.मी. एवं कतारों में पौधे की बीच 25-30 सें.मी. का अंतर रखना उचित रहता है। ग्रीष्मकालीन भिंडी की बुवाई कतारों में करनी चाहिए। कतार से कतार की दूरी 25-30 सें.मी. एवं कतार में पौधे से पौधे के मध्य दूरी 15-20 से.मी. रखनी चाहिए। बीज की 2 से 3 से.मी. गहरी बुवाई करनी चाहिए। बुवाई के पूर्व भिंडी के बीजों को 3 ग्राम मेन्कोजेब कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। पूरे खेत को उचित आकार की पट्टियों में बांट लें जिससे कि सिंचाई करने में सुविधा हो। वर्षा ऋतु में जल भराव से बचाव हेतु उठी हुई क्यारियों में भिण्डी की बुवाई करना उचित रहता है।
बुआई का समय
ग्रीष्मकालीन भिंडी की बुवाई फरवरी-मार्च में तथा वर्षाकालीन भिंडी की बुवाई जून-जुलाई में की जाती है। यदि भिंडी की फसल लगातार लेनी है तो तीन सप्ताह के अंतराल पर फरवरी से जुलाई के मध्य अलग-अलग खेतों में भिंडी की बुवाई की जा सकती है।
खाद और उर्वरक
भिंडी की फसल में अच्छा उत्पादन लेने हेतु प्रति हेक्टेर क्षेत्र में लगभग 15-20 टन गोबर की खाद एवं नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश की क्रमशः 80 कि.ग्रा., 60 कि.ग्रा. एवं 60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से मिट्टी में देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के पूर्व भूमि में देना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को दो भागों में 30-40 दिनों के अंतराल पर देना चाहिए।
निराई व गुड़ाई
नियमित निंदाई-गुड़ाई कर खेत को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए। बोने के 15-20 दिन बाद प्रथम निंदाई-गुड़ाई करना जरुरी रहता है। खरपतवार नियंत्रण हेतु रासायनिक कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जा सकता है। खरपतवारनाशी फ्ल्यूक्लरेलिन के 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त नम खेत में बीज बोने के पूर्व मिलाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
सिंचाई
सिंचाई मार्च में 10-12 दिन, अप्रैल में 7-8 दिन और मई-जून में 4-5 दिन के अन्तर पर करें। बरसात में यदि बराबर वर्षा होती है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।
अधिक लाभ के लिए क्या करें



भिंडी की बुवाई का समय तो फरवरी से शुरू होता है पर  बाजार से उस प्रजाति का बीज खरीदना है जो जल्दी तैयार हो और गर्मी-बरसात दोनों ही मौसमों में अच्छी उपज दें। जनवरी के प्रथम सप्ताह में ही अपने खेत में भिंडी के बीज अंकुरित करके बुवाई कर देना चाहिए। खाद-पानी की व्यस्था आम भिंडी की फसलों की तरह ही करनी है। जल्दी बुआई करने से फसल मार्च में तैयार हो जाती है। उसे तोड़ने के बाद जून के महीने में भिंडी के पौधों को जड़ से चार-पांच इंच छोड़ कर उसकी कलम कर देना चाहिए । कुछ दिनों के बाद बरसात शुरू हो जाती है और कलम किए गए पौधों में फिर से कल्ले निकल आते हैं। दोबारा निकले हुए कल्लो में 40 से 45 दिनों में ही फल उगने लगते हैं। इस तरह आप एक बार बीज की बुआई कर दोबारा फसल काट सकते हैं। इससे आपकी खाद-पानी बीज की लागत आधे से कम होगी और मुनाफा चार गुना हो सकता है।


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ब्राह्मण वंशावली

मिर्च की फसल में पत्ती मरोड़ रोग व निदान

ब्रिटिश काल में भारत में किसानों की दशा