पुदीने की फसल सुरक्षा एवं कटाई


 आमतौर पर पोदीने की फसल को निम्न कीट व रोग क्षति पहुंचाते है। इसीलिए इनका समयानुसार नियंत्रण करना आवश्यक है।


कीट -
1. कीट रोयेंदार सूड़ी - इसका प्रकोप अप्रैल-मई के आंरक्ष में होता है। कभी-कभी तो इसका अगस्त में भी देखा गया है। इसके प्रकोप से पत्तियां गिरने लगती है। इस कीट का प्रकोप तराई वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। यह सूँडी पीले-भूरे रंग की रोयेंदार लगभग 2.5-3.0 सेमी लंबी होती है। इस कीट की सूंडी पत्तियों के हरे ऊतकों को खाकर कागज की तरह जालीदार बना देती है। इसेस पौधे की भोजन निर्माण क्षमता घट जाती है और फल की उपज पर सीधा पुरभाव पड़ता है।
इसकी रोकथाम हेतु 1.25 लीटर थायोडान 35 ईसी व मैलाथिऑन 50 ईसी को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें।  यदि आवश्यक हो तो 15 दिन के उपरांत फिर से छिड़काव करें।
2. दीमक -



दीमक के कारणमेंथाकी फसल को भारी क्षति पहुंचती है। इससे फसल को सीधी हानि पहुंचती है। यह जमीन से लगे भीतर भाग से घुसकर उसके सेल्यूसोलज भाग पर निर्भर रहती है। इसके आक्रमण से जड़ द्वारामेंथाऊपरी भाग को उचित पोषक त्तवों की पूर्ति भी नहीं हो पाती है, जिससे पौधे मरझा जाते और पौधों की वृद्धि भी रूक जाती है। इसकी रोकथाम हेतु खेत की सही समय पर सिंचाई करें। खरपतवारों को नष्ट करते रहें।
3. लालड़ी - यह कीट पत्तियों के हरे पदार्थ को खाकर छलनी कर देती है। इसकी रोकथाम हेतु कार्बेरिल का 0.2 प्रतिसत घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
4. माहू - यह कीट पौधों के कोमल अंगों का रस चूसने का कार्य करात है। इस कीट का प्रकोप का फरवरी-मार्च माह में होता है। इसके शिशु एवं प्रौढ़ अत्यिक संख्या में तेजी से विकसित होकर पौधे के रस को चूसते है जिससे पौधों की बढ़वार रूक जाती है।
इसकी रोकथाम के लिए मैटासिस्टॉक्स 25 ईसी 1 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
5. जालीदार कीट - यह कीट लगभग 2 मिलि लंबा और 1.5 मिमी चैड़े काले रंग का होता है जो कि मेंथा की पत्तियों पर आक्रमण करता है। इसके शरीर की ऊपरी सतह पर लंबे, काले और जाली की तरह के चिन्ह बने होते है। यह कीट पौधे के कोमल तने एवं पतेतियों का रस चूसता है जिस कारण पौधा जला दिखाई देता है।
इसके नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट का 400 से 500 मिलि प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
6. सेमी सूपर - इस कीट की सूँडी 3-4 मिली लंबी और हरेरंग की होती है। इसके शरीर के किनारे पर दोनों तरफ लंबाई में सफेद रंग की रेखा होती है। ये पत्तियों को सीधा काटकर खाती है और पत्तियों में छिद्र बना लेती है। इस कीट का प्रकोपमेंथाकी दूसरी फसल लेने पर होता है। इसकी रोकथाम के लिए मैलाथइआन का 300 मिलि प्रति हेक्टेयर की दर से 625 लिटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
रोग -
मेंथाकी फसल को कई तरह के रोग होते है जो कि इसको काफी प्रभावित भी करते है। तो जानते है कुछ गोर के बारे मेः
1. भूस्तारी सड़नः यह मैक्रोफोमिया फैसिवोलामी और पिथियम जाति की फफूंदियों के कारण उत्पन्न होता है। प्रांरभ में यह रोग खेत के कुछ भागों में शुरू होकर पूरे खेत की फसल को नष्ट कर देता है। प्रकोप की शुरू की अवस्था में भूस्तरी और भूरे मृत चिन्ह प्रकट होते है।
2. रतुआःयह पक्सिनिया मेंथाल नामक फफूंदी के कारण होता है। आमतौर पर इस रोग के लक्षण बसंत ऋतु में दिखाई देते है, जिनमें तने का फूलना, ऐंठना और पत्तियों का मुरझाना आदि चिन्ह प्रकट होने लगते है।
3. पत्ती धब्बा रोगः यह केराइनोस्पोरा कैसीकोला नामक फफूंदी के प्रकोप से होता है। यह रोग पोदीने की पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के रूप में लगता है, जिसके चारों पीले रंग का घेरा आसानी से बन जाता है। भूरे धब्बों के निर्माण से पत्तियों के अंदर भोजन निर्माण क्षमता आसानी से कम हो जाती है जिससे पौधे की बघ्वार और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पत्तियों में जगह-जगह धब्बों के कारण पत्तियां पीली होकर गिर जाती है। पुरानी पत्तियां पीली होकर पहले ओर नई पत्तियां बाद में गिर जाती है। इस रोग की रोकथाम के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड, डाइथेन एम-45 का 0.2 से 0.3 प्रतिशत घोल पानी में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
4. चूर्णिल आसिताः यह एरीसाइफी सिकोरेसियेरस कवक होती है इसमें सफेद धब्बे दिखाई देते है। ये जड़ों का रंग काला भूरा हो जाता है। ये पेड़ों को नुकासन पहुंचाता है।
कटाईः कटाई की अवस्था का पोदीने की उपज और उसके तेल की गुणवत्ता पर प्राव पड़ता है। यदि इसकी कटाई समय पर ना की गई तो इसकी उपज और तेल दोनों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है। इसकी प्रथम कटाई 100-120 दिन बाद की जानी चाहिए।  दूसरी कटाई को 60-70 दिनों के बाद किया जाना चाहिए। प्रतिवर्ष कटाई की संख्या जलवायु  के अनुसार दो-तीन होती है। जब पौधा खूब फैला हुआ हो तो फूल भी आने लगे तो यह समय तेल की मात्रा के लिए सर्वोत्तम होता है। इसी समय पर कटाई करना भी सही रहता है। यदि ज्लदी कटाई की जायेगी तो उसमें मेन्थॉल कम मात्रा में निकलेगा। यदि देर से कटी की जाएगी तो तेल की मात्रा घटेगी। कई बार कीटों के प्रकोप के कारण जल्दी ही इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। वर्षा के मौसम में पौधे जमीन पर गिर जाते है तो इसमें फफूंदी का प्रकोप हो जाता है। जब प्ततियों में अधिक पर्णहरिम हो तभी इसकी कटाई को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसीक पहली कटाई मई-जून और अगस्त-सितंबर के महीने में की जानी चाहिए।


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