मिट्टी की घटती उर्वरा शक्ति: सुधार जरूरी


हरित क्रान्ति के पूर्व हमारी फसलों की उत्पादकता निस्सन्देह काफी कम थी परन्तु हम प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से आज की तुलना में काफी सम्पन्न थे। माटी में पोषक तत्वों की उपलब्ध मात्रा पर्याप्त थी। केवल नाइट्रोजन की सर्वव्यापी कमी थी। भूगर्भ जल की भी प्रचुरता थी। प्रकृति भी अनुकूल थी, समय पर मानसून की वर्षा हो जाने से खेती का काम समय से प्रारम्भ हो जाता था। आज की तरह वर्षा के प्रति पहले उहा-पोह की स्थिति नहीं थी। बढ़ती जनसंख्या के कारण आज हमारे प्राकृतिक संसाधन खासकर माटी, पानी और बयार (हवा) सब के सब दबाव की स्थिति में हैं। कृषि विकास से जुड़े सभी लोगों  और सस्थाओं   का कर्तव्य  बनता है कि किसान की कदहिनाईयां  को हल करने के लिए ऐसी पहल करें ताकि मिट्टी की खोयी शक्ति पुनः लौटे, उत्पादकता वृद्धि दर में आयी गिरावट दूर हो और किसान अधिकतम लाभकारी उपज का लक्ष्य हासिलकर सुखी और समृद्ध हो सके। कृषि की सफलता से ही सुरक्षित होगी खाद्यान्न-सुरक्षा, पोषण-सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा और राष्ट्र सुरक्षा। 
हरित क्रान्ति के शुरूआती दौर में हमारी भूमि में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, बाकी अन्य आवष्यक पोषक तत्वों को प्रदान करने में भूमि सक्षम थी क्योंकि उसमें पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध थे। 
सघन कृषि के फलस्वरूप जहाँ एक ओर कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, वहीं दूसरी ओर अधिक उपज देने वाली प्रजातियों की उत्पादन क्षमता के अनुरूप पोषक तत्वों की खुराक पूरी न होे पाने के कारण मिट्टी के पोषक तत्व भंडार का दोहन हुआ और अब निःसन्देह अनेक पोषक तत्वों की भूमि में कमी हो गयी है। भूमि में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटैषियम जैसे प्रमुख पोषक तत्वों के साथ ही गंधक, जिंक, बोराॅन आदि की व्यापक कमी है। अब गंधक पौधों के लिए आवष्यक प्रमुख पोषक तत्व माना जाता है। फसलें सामान्यतया फास्फोरस के बराबर ही गंधक का अवषोषण करती हंै परन्तु दलहनी और तेलहनी फसलों की गंधक की आवष्यकताये  फास्फोरस से अधिक है। फिर भी उर्वरक के रूप में गंधक के उपयोग को फास्फोरस के समान महत्व नहीं दिया गया। इसका मुख्य कारण यह रहा कि पहले फसलों  की देशी जातियों की उपज काफी कम थी तथा अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट, पोटैशियम सल्फेट जैसे उर्वरकों के प्रयोग के फलस्वरूप फसलों की गंधक आवष्यकता की पूर्ति हो जाती थी। आधुनिक कृषि में  फसलों की अधिक उपज देने वाली जातियों के प्रचलन के बाद उपज स्तर में वृद्धि हुई, साथ ही गंधकयुक्त नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाषधारी उर्वरकों के स्थान पर गंधक विहीन (यूरिया, डाई अमोनिया फास्फेट, म्युरेट आफ पोटाश  तथा एन पी के कम्प्लेक्स) उर्वरकों का उपयोग होने लगा। अतः स्पष्ट है कि मिट्टी की उर्वराशक्ति काफी घटी है। 
माटी खेती का आधार है। माटी की उर्वरा शक्ति और माटी की उत्पादकता में चोली-दामन का सम्बन्ध है। माटी की उर्वराश्शक्ति के अनुसार उसकी उत्पादन देने की क्षमता प्रभावित होती है। अतः माटी की सेहत का फसलों की टिकाऊ रूप से उच्च उत्पादकता बनाए रखने में विशेष महत्व है। माटी की सेहत हमेशा अच्छी रहे इसके लिए यह जरूरी है कि फसल-उत्पादन के फलस्वरूप जितना पोषक तत्व फसलें जमीन से उपयोग कर रही हैं, उस मात्रा को हम किसी प्रकार पुनः धरती माँ को लौटाने का ईमानदारी से प्रयास करें। ऐसा न करने पर भूमि के पोषक तत्व भंडार का दोहन होगा और माटी की ताकत घटती जायेगी।  हम गत 45 वर्षों  से माटी के साथ यही अनीतिपूर्ण व्यवहार करते आए हैं जिसके कारण जहाँ शुरूआत में माटी में केवल नाइट्रोजन की कमी थी, वहीं आज कई आवयक पोषक तत्वों अर्थात फास्फोरस, पोटैशियम, गंधक, जिंक, बोराॅन आदि की कमी हो जाने के कारण माटी की सेहत गड़बड़ाई, उसकी फसलों को पोषक तत्वों को आपूर्ति करने की क्षमता घटी, फसलों में इन पोषक तत्वों की कमी के लक्षण प्रत्यक्ष रूप से बड़े पैमाने पर दिखाई देने लगे और फसल-उत्पादकता में ठहराव या गिरावट की स्थिति उत्पन्न हुई। 
सुनिष्चित करें फसलों की सही खुराक       
न्यूनतम के सिंद्धान्त के अनुसार भूमि  किसी भी आवश्यक तत्व की कमी होने पर प्रयोग किये गये अन्य पोषक तत्वों की क्षमता घट जाती है। यह इस बात का सुबूत है कि निवेशों की क्षमता घट रही है। यही नहीं, लगातार एक ही फसल अपनाने के कारण कीड़े व बीमारी की समस्या बढ़ी  है। साथ भूमि के भैतिक एवं जैविक गुणें पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है। कार्बनिक खादों का इस्तेमाल  घट जाने के कारण भूमि में कार्बनिक की मात्रा भी घटी है और कृषि उत्पादकता में ठहराव आया है। किसान अब जाने-अनजाने में इस समस्या को झेल रहे हैं। वे कहते हैं कि पिछले साल जितना खाद-पानी लगाये थे अगले वर्ष उतना ही प्रबन्ध  करने पर बराबर उत्पादन नहीं मिल पाता है। भूमि में जिन भी तत्वों की कमी हो उन्हें खद-उर्वरक, हरी खद आदि के प्रयोग द्वारा दूर किया जाय। फसल अवशेष, पशु मल-मू़त्र, भोजन-चारे आदि के अवशेष, सब्जियों-फलों आदि की छीलन, राख, हरी खाद आदि की बखूबी इस्तेमाल सुनिश्चित किया जाय। 
संसाधनों को ध्यान में रखते हुए संतुलित एवं सक्षम उर्वरक प्रयोग द्वारा प्राप्त करने योग्य सही उपज लक्ष्य का निर्धारण करके फसल की असफलता के खतरों  को दूर किया जाय। निवेशों के मूल्य को ध्यान में रखते हुए अधिकतम लाभकारी उपज प्राप्त करने का का लक्ष्य निर्धारित किया जाय। अधिकतम लाभकारी उपज प्राप्त करने के लिए सर्वोततम फसल प्रबन्धन अपनाना  जरूरी होगा।
अब प्रष्न उठता है, क्या यह कथन कि ‘उर्वरकों के अंधाधुंध  प्रयोग से मिट्टी बर्बाद हो गई’’  किसानो  की उर्वरकों के सन्तुलित प्रयोग के प्रति बढ़ती रूचि और विश्वास पर चोट पहुँचाकर उन्हें विचलित कर पायेगा। 
सच्चाई तो कुछ और ही है। हम गत 45 वर्षो से उर्वरकों के संतुलित प्रयोग के महत्व की षिक्षा तो किसानों को दे रहे हैं परन्तु खेद है कि अभी तक हम उन्हें उर्वरकों के कारगर प्रयोग के बारे में सही जानकारी और आवष्यक निवेष उपलब्ध कराने में पूरी तरह विफल रहे हैं।  
क्या हम यह भी नही जानते हैं कि उर्वरकों का प्रयोग शौकिया नहीं बल्कि फसल की खुराक के लिये आवष्यक पोषक तत्वांे की पूर्ति हेतु किया जाता है। परन्तु जब उर्वरक प्रयोग नाइट्रोजन और फास्फोरस-केवल दो पोषक तत्वों की पूर्ति तक सीमिति रहे और पौधे अपने वृद्धि और विकास के लिये कुल 17 पोषक तत्वों का उपयोग अनवरत् भूमि से करते रहे तो भूिम के पोषक तत्व-भंडार का दोहन और फलतः भूिम की उर्वरा शक्ति का हृास होना स्वाभाविक है। साथ ही भूमि की उत्पादन शक्ति भी कम होती जाती है। जब किसान धीरे-धीरे उर्वरकों के संतुलित प्रयोग के महत्व को समझने लगा और भूमि में अनेक पोषक तत्वों की बढ़ती कमी के सन्दर्भ में जब संतुलित फसल-पोषण नितान्त आवष्यक और महत्वपूर्ण हो गया तब किसान भला उर्वरकों के संतुलित प्रयोग और उसके महत्व को कैसे नजरन्दाज कर सकता है। हाँ, आज आवष्यकता इस बात की है कि अधिकतम लाभकारी उपज के लिये हम उर्वरकों के साथ जैविक खादों , जैव-उर्वरकों, फसल अवशेषों  एवं औद्योगिक उपजातों का यथासंभव एकीकृत प्रबंधन करें। इससे माटी की सेहत और माटी की उत्पादकता में अपेक्षित सुधार होगा। 


मृदा स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रमुख मुद्दे


भूमि के पोषक  तत्वों का बढ़ता दोहन।
अपर्याप्त एवं असंतुलित उर्वरक प्रयोग।
घटती उर्वरक प्रयोग क्षमता
कारक उत्पादकता में गिरावट ।
राज्य उर्वरक संस्तुतियों का कम प्रभावी होना।
मिट्टी परीक्षण आधारित उर्वरक संस्तुतियों की क्षमता में कमी।
आवश्यक निवेशों  की समस्या।
उपयुक्त एवं स्थाई उर्वरक-नीति का अभाव।
जैविक खादों का अभाव एवं उपादन के प्रति शिथिलता।
कृषकों को उन्नत कृषि ज्ञान का अभाव।
कुछ नकदी फसलों एवं फल वृक्षों में उर्वरको का अत्यधिक प्रयोग।


मिट्टी से पोषक तत्वों के दोहन के दुष्परिणाम
पोषक तत्वों की कमी के परिमाण में वृद्धि(पोषक की व्यापक कमी)।
पौधों में पोषक तत्वों की कमी की गंभीरता।
उर्वरकों की क्षमता में गिरावट।
मिट्टी की पोषक तत्व आपूत्रि करने की क्षमता में गिरावट।
टिकाऊ खेती की कमजोर बुनियाद।
पोषक तत्वों के दोहन से घटी भूमि उर्वरता को ठीक करने की अत्यधिक लागत।


दीर्घकालीन उर्वरक परीक्षणों से सीख
केवल नाइट्रोजन के प्रयोग  से पोषक तत्वों की लगातार कमी हो जाती है, जिससे टिकाऊ उत्पादन नहीं प्राप्त होता।
जिन मिट्टियों में नाइट्रोजन ,फास्फोरस,पोटाश वगंधक की पहले कमी नहीं थी वहां भी लगातार नाइट्रोजन के प्रयोग से इन ततवों की कमी होती देखी गई है।
राज्य की एर्वरक संस्तुतियां एच्च एत्पादकता के लिए अपर्याप्त साबित हो रही हैं और मिट्टी से पोषक तत्वों में पहले कमी होती जा रही है।


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मिर्च की फसल में पत्ती मरोड़ रोग व निदान

ब्राह्मण वंशावली

ब्रिटिश काल में भारत में किसानों की दशा