ऐसे गंगा नहाने से क्या फायदा?
डॉ जगदीश गाँधी
संस्थापक -प्रबंधक सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ
(1) तन को धोया मगर मन को धोया नहीं - ऐसी गंगा नहाने से क्या फायदा?:-
तन को धोया मगर मन को धोया नहीं - ऐसे गंगा नहाने से क्या फायदा? किसी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, बाद में अमृत पिलाने से क्या फायदा। कभी गिरते हुए को उठाया नहीं, बाद में आँसू बहाने से क्या फायदा। मैं तो गंगा गया, मैं तो यमुना गया, डुबकी लेते ही मन में ख्याल आ गया। तन को धोया मगर मन को धोया नहीं, ऐसी गंगा नहाने से क्या फायदा। मैं तो मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारा गया पूजा, प्रार्थना, इबादत, अरदास, बन्दगी करते ही मन में ख्याल आ गया। कभी मात-पिता की जो सेवा न की, ऐसे मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे में जाने से क्या फायदा। मैंने दान किया और पुण्य किया, दान करते ही मन में ख्याल आ गया। कभी भूखे को भोजन कराया नहीं, ऐसा दानी कहाने से क्या फायदा। मैंने वेद, गीता, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब पढ़े, पवित्र ग्रन्थ पढ़ते ही मन में ख्याल आ गया। ढाई अक्षर प्रेम का सीखा नहीं, ऐसा ज्ञानी कहाने से क्या फायदा।
(2) सारी सृष्टि के बनाने वाले परमात्मा से भी प्रेम करना ज्यादा जरूरी है:-
पवित्र गीता हमें सर्व भूत हिते रतः अर्थात समस्त प्राणी मात्र के हित में रत हो जाने का ज्ञान देती है। बाईबिल ज्ञान देती है कि अपने पड़ोसी को भी अपने जैसा प्यार करें। कुरान ज्ञान देती है कि ऐ खुदा सारी खिलकत को बरकत दें। गुरू ग्रन्थ साहिब ज्ञान देती है कि एक नूर से सब जग उपज्या - एक ही परमात्मा से यह सारा जग उत्पन्न हुआ है। रामायण ज्ञान देती है कि सीया-राम मय सब जग जानी। करहु प्रणाम जोरी जुग पाणी। इस सारे जग का मालिक जगदीश्वर है। सारी सृष्टि को बनाने वाला परमात्मा है उससे प्रेम करना ज्यादा जरूरी है।
(3) मैं एक शान्त स्वरूप आत्मा हूँ:-
मेरा सही परिचय यह है कि मैं एक शान्त स्वरूप आत्मा हूँ। धर्म का मर्म बहुत छोटा सा है कि अपनी आत्मा के खिलाफ न चलना। जब कोई बुरा काम करने चलते हैं या किसी को मारने चलते है तो अंदर से आवाज आती है ऐसा नहीं करना चाहिए। आत्मा जिस काम के लिए रोके उसे नहीं करना चाहिए। वेद, रामायण, गीता, कुरान, बाइबिल याद नहीं रहते हैं। आत्मा में परमात्मा है बस इतना ही हर पल याद रख ले तो काफी है। परमात्मा ही हमें एक-एक सांस गिन-गिनकर देता है। जिस दिन वह सांस देना रोक देता है उस दिन हो जाता है - ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है।’ हमें प्राण रहते हुए अर्थात जीते जी ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है’ को जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए। मरने के बाद ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो मुक्ति है’ को मिट्टी के मृत शरीर को स्मरण कराने से क्या फायदा। जीवन में जीते जी मुक्ति प्राप्त करना ही असली आत्म बोध है।
(4) आत्मा की आवाज सुनते हुए अपने प्रत्येक कार्य-व्यवसाय को करें:-
कौन तुझ बिन भंवर से निकाले, मेरी नैया है तेरे हवाले। डूबते को तू बचा ले, मेरी नैया है तेरे हवाले। भगवान की भक्ति का ज्ञान कहता है कि मेरे भगवान से ज्यादा बलवान, बुद्धिमान तथा सुन्दर कोई नहीं है। जिसे हम सब से ज्यादा प्यार करते हैं उसके प्रशंसक होते हैं । भगवान की भक्ति का ज्ञान यह है कि हम आत्मा की आवाज सुनते हुए अपने प्रत्येक कार्य-व्यवसाय को करें।
(5) दोहरा मापदण्ड हमें अशान्त करता है:-
हम दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जिसकी हम स्वयं अपने साथ अपेक्षा न करते हों। हमारी तमाम परेशानियों, उलझनों, मतभेदों, लड़ाइयों व सामाजिक तनावों का कितना व्यवहारिक व आसान सा उपाय है। दोहरा मापदण्ड हमें अशान्त करता है। चाहे हमारे साथ किया जा रहा हो या हम किसी के साथ कर रहे हों। दोहरे मापदण्ड अपनाने से एक नकारात्मक ऊर्जा का संचार मन और शरीर के स्तर पर होता है। यह हमारी सोच, व्यक्तित्व व कार्य प्रणाली को विखण्डित कर देता है। जब भी हम अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ होते हैं तब हमारे अन्दर की सकारात्मक ऊर्जा भी इसके प्रभाव में आकर नकारात्मक रूप ले लेती है। आज अधिकांश मनुष्य दोहरे मापदण्ड की मनःस्थिति के शिकार हैं। स्वयं के लिए मीठा-मीठा और दूसरों के लिए कड़वा-कड़वा। अर्थात मीठा-मीठा स्वयं खुशी-खुशी ग्रहण कर लेते हैं तथा कड़वा-कड़वा थूँ-थूँ करते फिरते हैं। जीवन में सुख-दुःख, सफलता-असफलता, रात-दिन आते जाते हैं। हमें जीवन की इन वास्तविकताओं को सहर्ष स्वीकारना चाहिए।
(6) कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूँ विश्वास में:-
संत कबीर ने अपने निम्न प्रेरणादायी विचारों द्वारा हमें बड़ी सरलता से आत्मज्ञान दिया है:-
मोको कहां ढूंढे रे वन्दे मैं तो तेरे पास में, न तीरथ में ना मूरत में ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना कावे कैलास में, मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास मंें...............
ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं वरत उपास में, ना मैं किरिया करम में रहता नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में ना ब्रह्माण्ड आकाश में, ना मैं प्रकृति प्रवार गुफा में नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं इक पल की तालास में, कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में।
(7) परमात्मा का अंश आत्मा के रूप में हमारे अंदर ही है:-
पूजा स्थलों में नहीं, हृदय में परमात्मा का वास होता है। यदि हम भगवान के दर्शन चाहते हंै तो वह परमात्मा अत्यन्त निकट हैं। मन्दिरेश्वर परमात्मा तो दूर है, परन्तु हृदयेश्वर परमात्मा के दर्शन हमको करना है तो उसके लिए सर्वप्रथम हृदय को पवित्र बनाना होगा। परमात्मा का अंश आत्मा के रूप में हमारे अंदर ही है। उसे खोजने के लिए बाहर झाँकने की आवश्यकता नहीं है। एकता, शांति, सौम्यता और मधुरता को खोकर हम अपनी आत्मा तथा परमात्मा से दूर होते जा रहे हैं। हममें से कितने हैं जो अपने आत्मतत्व की आवाज सुन पाते हैं।
(8) परमात्मा की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर जीने में ही समझदारी है:-
एक कथानक के द्वारा हम भगवान की बैचेनी को समझेंगे। भगवान कहते है कि ‘‘हम लोगों के पास उन्हें कल्याण का रास्ता बताने संसार में आये थे। उन्हें एकता और शांति का मार्ग बताना चाहते थे। उनको स्वर्ग और मुक्ति का आनंद देना चाहते थे और उनको सच्चे मायने में मनुष्य बनाना चाहते थे। हम उनको यह बताना चाहते थे कि इनसान भगवान का बेटा है उसको दुनिया में शान से रहना चाहिए। भगवान के पास जो आनंद है, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए।’’ हम इनको यही सिखाने के लिए आए थे, लेकिन ये मनुष्य बडे़ खुदगर्ज हैं। ये मेरी इच्छा को अपनी इच्छा बनाने का प्रयास ही नहीं करते हैं वरन् अपनी इच्छाओं को मेरे ऊपर थोपने का प्रयास करते हैं। ये केवल छोटी-छोटी चीजों की ख्वाहिश करते हैं तथा मेरा ज्येष्ठ पुत्र बनने का इनको जरा भी दायित्व बोध नहीं है। मैं इनके पास नहीं रहूँगा। एक स्वार्थ की बुराई हमारे हजारों गुणों तथा मानव जीवन के अनमोल सुअवसर का विनाश कर देते हैं।
(9) मोको कहां ढूंढे रे वन्दे मैं तो तेरे पास में:-
भगवान जब ज्ञान बाँटने धरती पर आए, तब मनुष्य मनोकामनाओं की लिस्ट लिए अनेक वरदान उनसे माँगने लगे। भगवान घबरा कर समुद्र में गये, तो वहाँ भी लोगों ने उन्हें पकड़ लिया। पहाड़ पर गये, तो वहाँ भी लोगों ने पकड़ लिया और जब वे जमीन पर थे, तो वहाँ भी मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया। भगवान ने युक्तिपूर्वक बहुत सोचने के बाद अपना वास मनुष्य के हृदय में बना लिया। मनुष्य संसार भर में भगवान को खोजने तो जायेगा लेकिन अपने हृदय में वास करने वाले परमात्मा को पाने की कोशिश कभी नहीं करता है। हम अपने मन की आँखे खोलकर गहराई तक अंदर प्रवेश करें और ढूँढें अनंत शक्ति, एकता, आनन्द एवं शांति के स्रोंत को पवित्र भावना से किए गये अपने कार्य-व्यवसाय के द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा से एकाकार कर लें यहीं मानव जीवन का परम उद्देश्य है।
(10) लोक कल्याण ही परमात्मा की सबसे श्रेष्ठ पूजा है:-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा नहीं अधमायी। ईश्वर के भक्तों को काम ढूंढ़ना नहीं पड़ता। जो ईश्वर पर मात्र भरोसा रखकर कर्म रहित होकर बैठे रहते हैं। ईश्वर उनके लिए लोक कल्याण की परिस्थितियाँ पैदा कर देता है। सृष्टि के रचनाकार परमपिता परमात्मा को किसी ने उसके कामों के सिवा और किसी रूप में नहीं देखा है। जो ईश्वर भक्त हंै, वे बुरी से बुरी परिस्थितियों का भी सदुपयोग कर लेते हैं। साथ ही उसे दृढ़तापूर्वक प्रभु मार्ग पर आगे बढ़ने की अपनी ताकत बना लेते हंै। भगवान तो तरह-तरह से अपने भक्तों की परीक्षा लेते हंै। जो ईश्वर का काम करने वाले सच्चे भक्त बन जाते हैं, वे अपने भीतर सभी गुणों के साथ वास करने वाले ईश्वर की आवाज सुन लेते हैं और अपने अंदर ही ईश्वर को पा लेते हैं।
हे मेरे ईश्वर, हे मेरे परमेश्वर, मेरे हृदय को निर्मल कर - मेरी आत्मा में तू अपनी खुशियों का संचार कर। परमात्मा अपना नाम जपने वालों से नहीं वरन् लोक कल्याण की भावना से उसका काम करने वालों से खुश होता है। लोक कल्याण ही परमात्मा की सबसे श्रेष्ठ पूजा है।