जिंदगी की दुश्वारियाॅ भी कर्म पथ के आगे हुईँ बौनी
कृष्ण कुमार द्विवेदी (राजू भैया)
साथ में ना शासन, ना नेता ना सरकार ,फिर भी बेफिक्र कोरोना जंग में जुटे हैं पत्रकार !
भले ही घरों में बीमारी, संसाधन का अभाव एवं गृहस्थी के तमाम भयावह झंझावात हो! फिर भी पत्रकार कोरोना महामारी की जंग में कर्म योद्धा की तरह डटे है। जिंदगी की तमाम दुश्वारियां भी इनका रास्ता रोकती नजर नहीं आती। हाड मांस का यह इंसान समाज के जिम्मेदारों की नजर में बस खबर छापने की मशीन भर है? दुर्भाग्य यह भी है की समाज की तमाम समस्याओं को उजागर करने वाले पत्रकार के साथ ना तो सरकार दिखती है ना शासन और ना प्रशासन अथवा ना राजनेता? शायद यही वजह है कि पत्रकार स्वयं में खबर है।
कोरोना महामारी की जंग में दुनिया का हर जागरुक व्यक्ति लगा हुआ है। खासकर डॉक्टर, पुलिस के लोग वैज्ञानिक, सफाई कर्मचारी अन्य तमाम लोग भी इस महामारी के सर्वनाश के लिए प्रयासरत हैं। जनता भी इन कर्म योद्धाओं का अभिनंदन कर रही है। लेकिन जब भी देश दुनिया के सामने ऐसी कोई भी स्थिति आती है तो एक तबका पत्रकारों का भी होता है। जो पूरी मेहनत और लगन से हर उस युद्ध में एक योद्धा की तरह शामिल हो जाते हैं जिसे जीतना इंसानों के लिए जरूरी होता है ।भले ही वह नजर आए या फिर नजर ना आए? वर्तमान में भी कोरोना युद्ध जारी है। तो पत्रकार भी इसमें डटे हैं। देश के यदि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों अथवा कुछ वेतन भोगी पत्रकारों या फिर बड़े संस्थानों के पत्रकारों को यदि छोड़ दिया जाए तो जिला स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति बड़ी बद से बदतर हैं? जिले से लगाकर ब्लॉक मुख्यालय तक तमाम छोटी-बड़ी खबर का संकलन करने वाले पत्रकार वास्तव में स्वयं में एक खबर है?
कोरोना युद्ध की खबरों पर पैनी नजर रखने वाले पत्रकारों की यदि जिंदगी पर दृष्टि डाली जाए तो यह एकदम सत्य है कि ऐसे तमाम पत्रकार अपनी जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करते नजर आते हैं। कई मिशन पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की हालत आर्थिक रूप से बहुत ही जर्जर है? कई ऐसे पत्रकार हैं जिनके घरों में गृहस्थी के चूल्हे में जलने वाली लकड़ी अभाव में इतनी गीली है कि चूल्हा जलता नहीं बस सुलगता नजर आता है? परिजनों के दुखों को दूर करने की जुगत भी एक समर्पित कलमकार के पास नहीं दिखती? फिर भी पत्रकारिता को अपना धर्म मानने वाला एक कलमकार किसी के सामने अपना स्वाभिमान नहीं गिराता! आजादी के बाद अन्य जो तीन स्तंभ थे उन्हें समय-समय पर खूब ताकतें प्रदान की गई लेकिन पत्रकारों की हालत कल भी वैसी थी और आज भी वैसी ही है?
ग्रामीण अंचल में अपने परिवार के खर्चों से कटौती करके खबर भेजने की व्यवस्था करने वाला पत्रकार जीवन पर्यंत चौथे स्तम्भ की हनक में ही दबा रहता है। जनपद के बड़े अधिकारी भले ही पत्रकार का फोन उठाएं या ना उठाएं लेकिन मौका मिलने पर वह पत्रकार को उत्पीड़ित करने में कतई नहीं चूकते?
दुर्भाग्य यह भी है कि इधर कुछ दिनों से पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ कमियां भी आई है? कुछ ऐसे तत्व भी पत्रकारों की खाल को ओढ़ कर इस जमात में शामिल हो चुके हैं जिनका केवल काम है पत्रकारिता की आड़ में दलाली करना? जमीन की माफियागिरी करना? ट्रांसफर पोस्टिंग के कामों को आगे बढ़ाना? अपने किसी भी राजनीतिक आका को प्रसन्न रखना? बड़े अधिकारियों की चापलूसी करना? नौकरशाहों के दरबार में दरबारी बनकर बैठना? जाहिर है कि पत्रकारों की दुर्दशा के लिए कुछ उनके स्वयं के साथी पत्रकार ही उत्तरदाई हैं? कटु सत्य है कि ऐसे पीत पत्रकारिता करने वाले अवसरवादी पत्रकारों ने पत्रकारिता मिशन की गरिमा को कलंकित कर दिया है ?अधिकारी, नेता इन्हीं पत्रकारों के मुंह से अपनी तारीफ सुनकर तीखी और सच्ची पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के दुश्मन बन जाते हैं? जबकि समाज में सम्मान का पर्याय माने जाने वाला पत्रकार आज कहीं न कहीं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता नजर आ रहा है!
यदि हम बात करें कोरोना महामारी की तो इसमें ब्लॉक, तहसील, जिला स्तर के तमाम पत्रकार कर्तव्य परायणता से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। कई ऐसे भी पत्रकार हैं जिन्होंने इस महामारी से लड़ने के लिए दान दिया है। कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं जो जन जागरूकता अभियान में अपनी जान लड़ाए हुए हैं। कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं जो शासन एवं प्रशासन के संदेशों को सुदूर इलाकों तक ले जाने के लिए कड़ी मेहनत भी कर रहे हैं। लेकिन क्या इन पत्रकारों की केंद्र अथवा प्रदेश की किसी सरकार ने कोई चिंता की? कोई योजना लागू की? इनकी सुरक्षा के लिए कोई नियम बनाएं ?इनके आर्थिक अभाव को दूर करने की कोई कोशिश की? क्या पत्रकारों के सुरक्षा बीमा की बात सामने आई? क्या जिले के वरिष्ठ अधिकारीयों ने इन पत्रकारों के बारे में 1 दिन भी कोई चिंता की? क्या किसी राजनीतिक दल अथवा दल के किसी बड़े नेता ने इन पत्रकारों के बारे में कहीं कोई सामूहिक चिंता की? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है नहीं? इन सभी समाज के बड़े कर्णधारों की नजर में हाँड मास का यह इंसान जो पत्रकार कहलाता है केवल इनकी स्वयं की खबरें छपवाने वाला एक मशीन भर है?
कोरोना के युद्ध में सभी का सम्मान हो रहा है। अच्छी बात है। पत्रकार जन पुलिसकर्मियों, सफाई कर्मियों ,स्वास्थ्य कर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों, स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़े लोगों के सम्मान को और अधिक सम्मान देते हैं। लेकिन विचारणीय है कि क्या पत्रकारों के बारे में भी कोई कुछ सोचता है! शायद नहीं? नहीं? नहीं? हां यह जरूर है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं की पीत पत्रकारिता अथवा दलाली करने वाले पत्रकारों की आड़ को लेकर वह सच्ची पत्रकारिता करने वाले लोगों को भी दलाल तक का डालते हैं? जबकि सच यह है कि मिशन अथवा सच्ची पत्रकारिता करने वाले पत्रकार ना तो चापलूसी सुनने वाले वरिष्ठ अधिकारियों को सुहाते हैं और ना ही किसी बड़े राजनेता को?
स्पष्ट है कि कोरोना से जारी जंग में जिला अथवा ग्रामीण अंचल के पत्रकारों के सहयोग को नकारा नहीं जा सकत। यह पत्रकार भले ही अभावग्रस्त हैं लेकिन समाज के लिए अच्छा काम करते हुए अच्छी खबरें देने के मामले में कतई पीछे नहीं रहते। गांव, कस्बा, शहर की खाक छानकर प्रशासन व सरकार को सटीक सूचना देने वाले पत्रकार भी सम्मान के योग्य है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार एवं शासन तथा प्रशासन व राजनेता कोरोना के इस युद्ध में इनकी भी चिंता करें। क्योंकि इनसे भी जुड़ा है इनका परिवार व इनके परिजन !खासकर मिशन पत्रकारिता का भाषण देने वाले लोग अपने गिरेबान में जरूर झांके? देश की पत्रकारिता का यदि कोई मूल है तो वह है दूसरों की खबर देकर स्वयं ही खबर में में बने रहने वाले ग्रामीण अंचल के पत्रकार? फिर भी हिम्मत और हौसला देखिए कि चेहरे पर कोई शिकन नहीं! जिंदगी की दुश्वारियां का दर्द किनारे हटाकर समाज के लिए तमाम घरेलू अंगारों से बेफिक्र पत्रकार कोरोना महायुद्ध में एक योद्धा की तरह डटे हुए हैं।