पशुपालक अपने पशुओँ को संक्रामक रोग से बचायें
’डा. ए. के. सिंह, प्रसार वैज्ञानिक,
कृषि विज्ञान केन्द्र, वाराणसी,
मनुष्य की तरह पशु भी विभिन्न रोगो के प्रति संवेदनशील होते है, बहुधा देखा गया है पशुओं के द्वारा पूर्ण उत्पादन उसे स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। शरीर के अन्दर किसी भी प्रकार का संक्रमण उसके उत्पादन की प्रभावित करना है। हमारे ग्रामीण भाइयो तथा पशुपालको के मुल्यवान पशु देखते ही देखते एसी बीमारियो का शिकार होकर मौत के घाट उतर जाते है। पशु बोल नहीं सकते और न ही अपने रोगों के बारे में बतला सकते है, लेकिन अपने पशुओं के प्रति सजग पशुपालक लक्षणों को देखकर उसकी बीमारी का पता लगा सकते है। मनुष्य की तरह पशु भी बरसात में विभिन्न रोगों के प्रलि संवेदनशील होते है। बहुधा देखा गया है कि पशुओं में साधारणतः असंक्रामक तथा संक्रामक बीमारिया होती है। लेकिन पशुपालक संक्रामक बीमारियों से ज्यादा नुकसान उठाते है। संक्रामक रोग साधारणतः जीवाणु एवं वाइरस से फैलते है। इस मौसम में भुसा, हरा चारा,दाना, चोकर इत्यादि में फफूद का प्रकोप हो जाता है, एवं नदियों नालो तथा तालाब का पानी किटाणुओं तथा विभिन्न प्रकार के परजीवी से प्रदूषित हो जाता है। पशुओं के इस संक्रमित चारे-दाने एवं पानी के सेवन से तथा बीमार पशुआंे के सम्पर्क में आने से पशु बीमार पड़ जाता है। जिससे उत्पादन प्रभावित होता है।
जीवाणुओं से होने वाले प्रमुख रोगः-
1. ऐन्थ्र्रैक्स (जहरी बुखार)- इस बीमारी की प्रारम्भिक अवस्था में तेज बुखार, बेचैनी, नाड़ी की तेज चाल, आखे उभरी और झिल्ली लाल पड़ जाती है। पशु का पेशाब एवं मल त्यागना बंद हो जाता है। नाक-मुह एवं मलद्वार से खुन का गिरना, दम घुटना, पेट दर्द इत्यादि के लक्षण प्रकट हो जाते है और अंत में पशु मर जाता है। यह बहुत ही घातक छूत की बीमारी है यह लगभग सभी पशुओं में यहाँ तक कि मनुष्यों में भी यह बीमारी फैल जाती है। बहुत ही घातक किस्म की बीमारी है, इसमें पशु की मृत्यु निश्चय है। इसकी रोकथाम मे सवसे अव्छा उपाय है कि 6 माह के ऊपर के उम्र के सभी पशुओं को अगस्त माह में प्रत्येक वर्ष अवश्य टीका लगवा देना चाहिए। इस बीमारी से बचाव का एक ही उपाय है टीकारण। सावधानी के तौर पर रोगी पशु को स्वस्थ्य पशु से अलग कर देना चाहिये। मरे हुये पशुओं को गहरे गढ्ढे मे ंडालकर उसके उपर चूना डालकर दबा देना चाहिए। यहाँ तक की उसकी खाल भी नहीं उतारनी चाहिए।
2. गलाघोटू- यह एक संक्रामक बीमारी है जो अचानक होती है, इसमें तेज बुखार शोथ वाली सुजन होती ह,ै जो खासकर मुँह से लार एवं नाक से म्यूकस निकलता है, सांस लेने में पशु केा कष्ट होता है, गले से घर्र-घर्र की कष्टपूर्ण आवाज सूनाई देती है। इस रोग का आक्रमण इतनी तेजी से होता है कि अगर उपचार समय से न मिले तो पशु की मृत्यु हो जाती है। यह रोग गाय, भैस, बकरी एवं भेड़ को भी होता है किन्तु भैंसो में अन्य पशुओं की अपेक्षा ज्यादा होता है। यह बीमारी प्राय वर्षा काल के समय ज्यादा होती है।
उपचार- बरसात का मौसम शुरू होने से पहले यानि मई-जून में 6 माह के ऊपर के पशुओं को टीका लगवा देना चाहिए। टीका लगवाने से गाभिन अथवा दूध देने वाले पशुओं के स्वास्थ्य पर बुरा कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। अगर इस बीमारी के लक्षण शुरू में ही प्रगट हो जाते है तो तुरन्त नजदीक के पशु चिकित्सक से इलाज करवाना चाहियें।
3. लगड़ी या जहरवाद- यह रोग गाय, भैंस, भेड़ एवं बकरियों को होता है। पहले पशुओं को तेज बुखार होकर उसके मांस पेशियों, कंधा, तथा पिछले पैरो के ऊपर पुट्ढो पर सुजन हो जाती है, जिससे पशु लगड़ाकर चलने लगता है। प्रारम्भिक अवस्था में सूजन गरम एवं दबाने से कड़-कड़ या चर-चर की आवाज आने लगती है। यह रोग अप्रैल से मई-जून के बीच फैलता है। इस रोग मे संक्रमित पशु अगर बच भी जाता है तो जिन्दगी भर के लिए अपंग हो जाता है।
उपचार- रोग ग्रस्त पशुओं को स्वस्थ्य पशुओं से अलग रख कर पालना चाहिये। पशुओं के बाड़े की सफाई प्रतिदिन करनी चाहिए एवं समय-समय पर चूने का छिड़काव करना चाहिये। मरे हुए पशुओं को गहरे गढढे में चूने के साथ दफनाना चाहिये ताकि जंगली जानवर उसे बाहर न निकाल सके अन्यथा सक्रमण फैल जायेगा। संक्रमित चारागाह में पशुओं को चरने से रोकना चाहिये। संक्रमित पशुओं को बीना देरी किए पशु चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिये।
4. संक्रामक गर्भपात- यह पशुओं के गर्भाशय की बीमारी है जिससे गर्भ गिर जाता है इससे भारी आर्थिक हानि होती है। यह रोग दाना-पानी गर्भपात के स्राव इत्यादि से फैलता है। गर्भपात प्रायः गर्भावस्था के पांचवे ंसे आठवें महीने में होता है। योनि से दुर्गन्धयुक्त एवं रक्त मिला हुआ स्राव बहने लगता है। बच्चा देने के अन्य लक्षण प्रकट होने लगते है। पशु बेचैन हो जाता है एव गर्भ गिर जाता है।
उपचार एवं रोकथाम - प्रत्येक वर्ष बरसात से पहले युवावस्था के मादा पशुओं को टीका अवश्य लगवा देना चाहिए तथा गर्भपात हो जाने पर पशु चिकित्सक से मिल कर गर्भाशय की सफाई करवानी चाहिये।
विषाणु से होने वाले रोगः-
1. अढ़ैया बुखार- यह ज्वर सम्बन्धी एक गाय/भैंस की बीमारी है यह खासकर बरसात में होती है। यह बीमारी जैसा कि नाम से स्पष्ट है 2-3 दिनो तक रहती है। पशु सुस्त पड़ जाता है पगुरी करना बन्द कर देता है। शरीर में कंपन होती है, हफनी बार-बार चलना, दात कटकटाना तथा पीछे का भाग कांपना आदि इस बीमारी के लक्षण है। इस बीमारी से कुछ दिनों के लिए उत्पादन प्रभावित होता है।
उपचार- अक्सर पशु 2-3 दिनो में स्वस्थ हो जाता है लेकिन पशु को आराम के लिए पशु चिकित्सक से मिलकर बुखार आदि की दवा देनी चाहिए।
2. खुरपका मँुहपका- यह छुत वाली बिमारी है यह बहुत ही शीघ्र एक पशु से दूसरे पशु में फैल जाती है। यह सभी पशुओं गाय, भैंस, बकरी एवं भेड़ में होती है। इससे संकर नस्ल के पशु ज्यादा प्रभावित होते है। इस बीमारी में पशु को कपकपी देकर 103-104 फारेनहाइट तक ज्वर हो जाता है। मँुह के अन्दर देखने पर मँुह की झिल्ली लाल एवं गरम महसुस होती है। दूसरे या तीसरे दिन फफोले मँुह के भीतरी भाग, तालु जीभ एवं होठ पर दिखाई पड़ते है। एक दो दिन के बाद फफोले फूट जाते है। खुर में भी इसी तरह के छाले होने पर दर्द होता है। जिससे जानवर लगड़ाने लगता है। पशुआंे के थन एव टीटस पर भी फफोले हो जाते है जो 36-48 घंटे में फूट जाते है। रोग की भयंकर स्थिति में न्यूमोनिया, जोड़ो में सूजन, फ्लूरसी, खून विष और यहाँ तक की गर्भपात हो जाता है। खुर पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है क्योंकि कीटाणुओं से संक्रमण के कारण खुर में कीड़े पड़ जाते है, जिससे पैर हमेशा के लिए खराब हो जाता है। इस बीमारी से पशुओं की मृत्यु तो नहीं होती है लेकिन नवजात बच्चों में आँतों में सूजन के कारण मृत्यु हो जाती है एवं वयस्कों में चारा-दाना ग्रहण न कर पाने के कारण पशुओं की कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है।
उपचार एवं रोकथाम- जब पशु बार-बार पैर पटकने लगे तथा पैरो में मक्खियां लगने लगे अथवा पशु लगड़ाने लगे, मुँह से लार टपकने लगे तो पशुपालको को सावधान हो जाना चाहिए। मुँह के छालों को 2ः फिटकरी अथवा नमक रगड़कर मुँह को धोना चाहिए। खुर से गन्दगी हटाकर दिन में दो बार गुनगुने पानी अथवा फिनाइल इत्यादि के घोल से खुर को धोना चाहिए, नीम की पत्ती को पानी में उबालकर भी खुर की सफाई की जा सकती है। छालों पर बोरिक, सल्फानिलामाइड अथवा जिंक आक्साइड का मलहम लगाना चाहिए।
रोकथाम का सबसे अच्छा उपाय टीकाकरण ही है, पहला बचाव का टीका 4 सप्ताह की आयु होने पर, दूसरा टीका पहले के 6 सप्ताह बाद तथा तीसरा टीका दूसरे टीके के 6 माह बाद और इसके पश्चात वर्ष में एक बार टीका लगवाना चाहिये।
3. पोकनी/पशु प्लेग- यह बीमारी पशुओं में अब बहुत कम देखने को मिलती है। इस बीमारी में ज्वर हो जाता है, पशु के मुँह सींग और शरीर किसी समय गरम और किसी समय ठंडा हो जाता है। मल एवं पेशाब की झिल्ली लाल हो जाती है ऐसी दशा में बदबूदार दस्त शुरू हो जाती है, पतले दस्त के साथ आँव युक्त खुन आने लगता है तथा दस्त पिचकारी जैसा होता है। इस प्रकार जानवर 2-6 दिनो में मर जाता है।
उचपार एवं रोकथाम- इस बीमारी का सबसे अच्छा उपाय यही है कि स्वस्थ पशुओ को टीका अवश्य लगवा देना चाहिए। बीमारी के लक्षण प्रकट होते ही पशु को पशु चिकित्सक से तुरंत इलाज करवाना चाहिए। पशुओ को रखने के स्थान को साफ-सुथरा रखना चाहिए, एवं समय-समय पर चूने का छिड़काव करना चाहिये। चारा मुलायम एवं पचने वाला देना चाहिए।