आप और मिट्टी दोनों की सेहत सुधारक कुल्थी


 

कुल्थी की खेती दलहन फसल के रूप में की जाती है । कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में खुदाई से कुलथ के दाल के दानें मिले हैं, जिसकी अवधि 2000 BC मानी गयी है । भारत में इसकी खेती पूरे दक्षिण भारत के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल , बिहार , महाराष्ट्र और उत्तराखण्ड में की जाती है । इसे अलग अलग जगहों पर कुलथ, खरथी, गराहट, हुलगा, गहत और हार्स आदि कई नामों से भी जाना जाता है । कुल्थी के दानों का इस्तेमाल सब्जी बनाने में भी किया जाता हैं ।  कुलथ की दाल में प्रोटीन बहुत होता है ।  साथ हीं इसमें कैल्शियम,  फासफोरस, आयरन , कार्बोहाइड्रेट और फाइबर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । 

कुलथ दाल की पैदावार से जमीन की गुणवत्ता भी ठीक होती है ।  इसके उगाने से मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढती हैं । इसके पौधों का इस्तेमाल हरी खाद बनाने में भी किया जाता हैं । इस दाल के सेवन से गुर्दे की पथरी निकल जाती है । रात को एक गिलास पानी में कुलथ भींगोकर रख दें । सुबह उठकर उस पानी को पी जाएं । फिर उसमें पानी यथावत रख दें । इस पानी को दोपहर को पीएं । दोपहर को रखा पानी फिर शाम को पीएं और अबकी बार दाल के दानें को फेंक दें । रात को नए दानें डालें । पानी भरें और उसे सुबह इस्तेमाल करें। यही क्रम एक या दो माह करने के पश्चात् गुर्दे की पथरी छोटी होकर अपना जगह बदल देती है और मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है । कुलथ की दाल से बहुमूत्र भी होता है जो कि पथरी को बाहर निकालने में मदद करता है ।

उत्तराखण्ड में कुलथ को गहत कहते हैं । 19 वीं सदी तक यह पहाड़ों में चट्टानों को तोड़ने के लिए डायनामाइट का काम करता था । जिस चट्टान को तोड़ना होता था उसमें पहले ऊखलनुमा गड्ढा बना दिया जाता था । उस गड्ढे में गहत के गर्म पानी को डाला जाता था । यह पानी चट्टान को चटका देता था । उसमें दरारें पड़ जातीं थीं । फिर इस चट्टान को हथौड़े की मदद से तोड़ लिया जाता था ।

गहत की दाल की तासीर गर्म होती है , इसलिए यह पहाड़ों में सर्दी के दिनों में अधिक इस्तेमाल की जाती है । इन दिनों गहत की दाल खाने से ठण्ड नहीं लगती । पहाड़ों में इस दलहन की उत्तम खेती होती है । पैदावार अच्छी होती है । जो चीज जहाँ ज्यादा होती है , वहाँ उसकी कद्र नहीं होती । पहाड़ों में इस दाल की कोई कद्र नहीं हैं । इसलिए पहले यह पहाड़ों के तोड़ने के काम आती थी । अब कहीं जाकर इसकी जगह डायनामाइट का इस्तेमाल हो रहा है । लेकिन इस दलहन पर एक संगीन आरोप मढ़ दिया गया है कि यह गरीबों का भोजन है । जब पैदावर अच्छी होगी तो जाहिर सी बात है कि यह सस्ती होगी । सस्ती चीज तो गरीबों के हीं हिस्से आती है ।

हमारे पूर्वांचल में अरहर की दाल खायी जाती है । दाल का उत्पादन भी ठीक ठाक होता है । इसलिए खपत भी ज्यादा होती है । हांलाकि सभी दालों में अरहर सबसे महंगी बिकती है , पर हम कद्र कुल्थी की करते हैं । गहत को हमारे यहाँ कुल्थी कहा जाता है । कुल्थी हमारे यहाँ बड़ी निधु चीज मानी जाती है । यहाँ यह गरीबों का भोजन न होकर अमीरों की थाली का सरताज बनती है । हमारे यहाँ कुल्थी पर एक कहावत प्रचलित है -

 

मुँह अइसन मुँह ना 

कुल्थी चुमावन ।

 

कहने का लब्बोलुआब यह कि हमारे यहाँ कुल्थी एक विशेष दाल है जिसके लिए विशेष दर्जा हासिल करना होता है ।

अपने मिर्थी प्रवास के दौरान मैं हर माह 10 किलो दाल चण्डीगढ़ भिजवाता था । बच्चे बड़े तबियत से खाते थे । खाते कम थे भण्डारण ज्यादा करते थे । दाल सस्ती  मिलती थी और हम मौके का फायदा उठा रहे थे ।  मैं जिन लोगों से यह दाल खरीदता था उनका घर हमारे ताड़ बाड़ के नजदीक हीं था । उनका मुंह आश्चर्य से खुला होता था - भला गहत भी साहब लोगों की खाने की चीज है !

             - Er S D Ojha

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