भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया । वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था - उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी, पाण्डेय, और चतुर्वेदी । इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की।वे क्रमशः उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी पाण्ड्यायनी, और चतुर्वेदिनी कहलायीं। फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम - कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, वत्स, गौत
मिर्च में पर्ण कुंचन रोग के कारण मिर्च की पत्तियॉ छोटी होकर मुड जाती हैं। पत्तियों की शिराएं मोटी हो जाती है जिससे पत्तियां मोटी दिखाई पड़ती है, पौधौं की बढ़वार रूक जाती है, पौधे झाड़ीनुमा दिखाई पडते हैं। पौधों पर फल लगना कम हो जाते हैं फल लगते भी हैं तो कुरूप हो जाते हैं। यह वायरस सफेद मक्खी द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलता है। यदि सफेद मक्खी एक बार रोग ग्रसित पौधे से रस चूस लेती है तो वह पूरे जीवन काल रोग फैलाने में सक्षम होती है। अतरू इस बीमारी के प्रबंधन के लिए रस चूसक कीटों की सामूहिक रोकथाम ही सर्वाधिक उचित उपाय है। मिर्च का रकबा अधिक होने से एवं मिर्च के आसपास अन्य फसलें जैसे पपीता, टमाटर, कपास का रकबा भी अधिक होने के कारण वायरस वाहक रसचूसक कीट एक खेत से दूसरे खेत में असानी से बीमारी को फैलाने में सहायक सिद्ध होते हैं। भविष्य में रोग की रोकथाम एवं बचाव की संभावित कार्ययोजना निम्नानुसार होगी- खेत की तैयारी- * गर्मी में गहरी जुताई अवश्य करवाएं। * मेंड़े साफ-सुथरी की जाएं । * खेत के आसपास पुराने मिर्च, टमाटर, पपीते के पौधों को नष्ट किया जाए। * खेतों में अधिक वर्षा की स्थिति में
अंग्रेजी राज्य में कृषि की परम्परागत व्यवस्था नष्ट हो गई तथा भारत से अधिकाधिक धन के शोषण हेतु कृषि की अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर उसे अनवत किया गया जो भारत की अर्थ-व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुआ। भू-राजस्व के निर्धारण एवं वसूली की प्रक्रिया में ग्राम पंचायतों की उपेक्षा कर अनेक प्रणालियों का प्रयोग किया गया जो असफल रहा। विष्लेशण करने पर अंग्रेजी राज्य में कृषि की निम्नांकित समस्याएँ उत्पन्न हुई जो कृषकों में अशान्ति का कारण थीं। 1. भू-राजस्व की दूषित नीति- अंग्रेजों की दूषित भूमि नीति कृषकों की अषांति के मूल में मौजूद थी। कुछ समय बाद अलबत्ता अंग्रेजों की नीति में परिवर्तन आया, और उन्होंने भू-राजस्व निर्धारित कर उसे कृषि उपज की वृद्धि के साथ निरन्तर अधिकाधिक वसूल करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने भूमि के उत्पादन का आधा भू-राजस्व निष्चित किया जो काफी ऊँचा था। फलस्वरूप कृषि तथा कृषक की दशा निरन्तर गिरती गई, और किसानों में असन्तोष बढ़ता गया। 2. भू-राजस्व के निर्धारण एवं ग्राम पंचायत की उपेक्षा- भू-राजस्व के ब्रिटिश राज में भारतीय कृषि एवं इसकी समस्याएँ निर्धारण तथा उसकी वसूली में भारत की परम्पराग