बेरोजगार युवक बकरी पालन कर आत्मनिर्भर बने

लेखक - डा. ए. के. सिंह, **डा. आर.सी. वर्मा** एंव डा. जे. पी. सिंह’

उत्तर प्रदेश में घनी आबादी है यहाँ किसानो के पास खेती बहुत कम है। जीससे  सीमान्त, लघु सीमान्त एंव भूमिहीन किसानो की संख्या बहुत अधिक है। ऐसे में यहाँ के किसान पशुपालन करते है। भूमिहीन एंव लघु सीमान्त किसानो को अपनी आजीविका चलाने तथा गरीबी कम करने में बकरी पालन से सहायता मिलती है। बकरी एक छोटा जानवर होने की वजह से आसानी से पाली जा सकती है। इसको रखने के लिए बहुत ज्यादा जगह की आवश्यकता नहीं होती है व खिलाने-पिलाने में भी काफी कम खर्च करना पड़ता है। यह एक ऐसा पशु है, जिसे गरीब लोग भी रख सकते है। भूमिहीन, लघु एवं सीमान्त कृषकों के लिए बकरी पालन एक अच्छा एवं लाभकारी व्यवसाय है, क्योंकि इसमें कम खर्च से अधिक लाभ कमाया जा सकता है इसलिये बकरी को गरीबों की कामधेनु भी कहा जाता है। गाय/भैस आदि दुधारू पशुओं को पालने के लिए जहाँ अधिक पूँजी, स्थान एवं चारा दाना की जरूरत होती है इसलिए ऐसे पशुओं को पालना कठिन हो जाता है। ऐसे में बकरी पालन के लिए आसानी से चारा-पानी उपलब्ध कराया जा सकता है, क्योंकि इसके लिये बरगद, पीपल, बेर, सुवबुल इत्यादि की पत्तियों को खिलाकर एवं चराई कराकर आसानी से पाला जा सकता है।
पूरे विश्व में बकरियों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है जो विश्व की पुरी आबादी का लगभग 20 प्रतिशत है। भारत में बकरियों की संख्या लगभग 127 मिलियन से अधिक है। बकरियों की संख्या में पिछले 42 सालों में 150ः की दर से वृद्धि हुई है। यह ध्यान देने की बात है कि हर साल 40ः की दर से बकरों का वध मांस के लिए हो रहा है, फिर भी बकरियों की संख्या में हर साल लगभग 3.75ः की दर से वृद्धि हो रही है।  पूरे विश्व में बकरी एवं भेड़ का मांस (6.5ः) अकेले भारत में होता है, जो कि गाय/भैंस (2.9ः), कुक्कुट (0.9ः) एवं शुकर  (0.45ः) के मांस से ज्यादा है। यदि हम देश में भोजन की सुरक्षा की बात करते है तो बकरी का मांस सबसे उत्तम होता है। सभी वर्ग के लोग इसे पसंद करते है। बकरी का दूध भी काफी लाभप्रद होता है। छोटे बच्चों को तो यह मां के दूध के समान पोषण देता है।
बकरी की प्रमुख नस्लें - बकरिया मांस एंव दुग्ध उत्तपादन दोनों  के लिये पाली जाती है।
(क) मांस उत्पादन के लिए - मांस उत्तपादन के लिये प्रमुख रूप से ब्लैक बंगाल, बरबरी, गंजनम, कुच्ची, मारवारी, सिरोही, ओसमानाबादी एंव संगमनेरी आदि प्रमुख नस्ले है।
(1) ब्लैक बंगाल - यह नस्ल मुख्यतः पश्चिम बंगाल, छोटा नागपुर एवं उड़ीसा के आसपास पायी जाती है, आकार में छोटी होती है, काले रंग एवं मुंह के नीचे दाढ़ी इसकी पहचान है इसका मांस काफी स्वादिष्ट होता है। इसके बकरे का वजन 11-15 एवं बकरी 8-12 किग्रा वजन की होती है।
(2) बरबरी- यह बकरी आगरा, ग्वालियर, मथुरा आदि के आसपास पायी जाती है। शरीर पर सफेद रंग में कत्थई रंग का धब्बा होता है। छोटे आकार की होने के कारण इसके बच्चे जल्द तैयार होते हैं। 15-20 किलो का वजन होने पर इनको बेचा जा सकता है। प्रौढ़ बकरा 35-40 किलो तक होते है। इसकी विषेशता है कि इसे एक स्थान पर बाधकर रख सकते है। सिरोठी एवं कुच्छी नस्ल की भी बकरिया मांस के लिए अच्छी होती है।
(3) सिरोही - इस नस्ल बकरिया राजस्थान के राजसमंद, उदयपुर, चित्तौडगढ, सिरोही, भीलवाड़ा और अजमेर जिले में पायी जाती है। इनका रंग भुरा होता है कुछ बकरियो के शरीर पर भूरे या सफेद रंग के धब्बे पाये जाते है इनका शरीर बडा होता है तथा नर का औसत वजन 42 किग्रा. तथा मादा का वजन 35 किग्रा. होता है। एक दुग्ध काल में 80 किलोग्राम तक दूध देती है।
(3) मारवाडी - मारवाडी नस्ल की बकरिया राजस्थान के पाली, नागौर, जोधपुर, जासौर, जैसलमेर, बीकानेर, तथा बाडमेर के इलाको में पायी जाती है। इनका शरीर बडा होता है तथा नर का औसत वजन 39 किग्रा. तथा मादा 31 किग्रा. की होती है। एक दुग्ध काल में 85 किलोग्राम तक दूध देती है।
(ख) दुग्ध उत्पादन के लिए - दुधारू नस्लों में प्रमुख रूप से जमुनापारी, बीटल, सुरती एंव झकराना आदि नस्ले प्रमुख रूप से होती है। बकरी के दूध का पनीर बहुत स्वादिष्ट होता है।
(1) जमुनापारी - यह सबसे बड़ी नस्ल है। जिनकी मुख्य नस्ल उ0प्र0 के इटावा जिले में पायी जाती है। गंगा जमुना के किनारे चम्बल नदी के आसपास के स्थान पर पायी जाती है। जमुनापारी नस्ल की बकरिया मुख्य रूप से दूध एंव मांस के लिये पाली जाती है। एक दुग्ध काल में 200 किलोग्राम तक दूध देती है। जमुनापारी बकरी एक वर्ष में एक बार गर्भ धारण करती है और एक बार में अक्सर एक ही बच्चा देती है। इसका आकार बड़ा होने के कारण इनके बच्चों को व्यस्क होने में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। मादा बकरी प्रायः एक वर्ष की उम्र में गाभिन हो जाती है, जून-जुलाई में गाभिन बकरियाँ सर्दी की ऋतु (अक्टुबर-नवम्बर) में बच्चा देती है और गर्मी के महीने में लगातार दूध देती रहती है।
बीटल:- बीटल नस्ल की बकरिया पंजाब के गुरदासपुर अमृतसर और फिरोजाबाद के इलाको मे पाई जाती है। बीटल नस्ल की बकरिया मध्यम आकार की होती है इनका शरीर बडा होता है तथा नर का औसत वजन 57 किग्रा. तथा मादा का 45 वजन किग्रा.होता है। इस नस्ल का दुग्ध उत्तपादन काफी अच्छा माना जाता है। एक दुग्ध काल में 150-200 किलोग्राम तक दूध देती है।
जखराना:- नस्ल की बकरिया राज स्थान के अलवर जिले के आसपास पास पायी जाती है। नस्ल की बकरिया आकार मे बडी तथा काले रंग की होती है इनके मुह तथा कानो पर सफेद रंग के धब्बे पाये जाते है। इनका शरीर बडा होती है तथा नर का औसत वजन 58 किग्रा. तथा मादा का 45 किग्रा. होता है। इस नस्ल की बकरिया मुख्य रुप से मांस एंव दूध के लिये पाली जाती है। एक दुग्ध काल में 140-150 किलोग्राम तक दूध देती है।
बकरियों का आहार - बकरियाँ स्वभाव से घूम-फिरकर चरना अधिक पंसद करती है। ये जंगलों/ परती खेतो में पाये जाने वाले छोटी-छोटी घास, दूब इत्यादि एवं बेर झरबेर, विलायती बबुल की पत्तियां तथा सुवबुल, पीपल, गुल्लर, बरगद आदि की पत्तियां भी बड़ी चाव से खाती है। परन्तु छोटी उम्र से ही एक स्थान पर बांधकर या बाड़े में रखकर खिलाया जाय तो ऐसी स्थिति के लिए भी तैयार हो जाती है। फसलों की निराई से प्राप्त खर-पतवार एवं सब्जियों का व्यर्थ भाग भी आसानी से खा जाती है।
नवजात बच्चों का आहार - बच्चों को पैदा होने के बाद माँ का दूध जल्द से जल्द पिलाने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि पहला दूध खीस होता है और यह बच्चों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। खीस (फेनुस) से बच्चों में बीमारियों से लड़ने की क्षमता पैदा हो जाती है। 2-3 दिन खीस रहने के उपरान्त दूध में परिवर्तित हो जाता है।

शरीर भार (किलोग्राम में )

 दूध की मात्रा (मिली लीटर /दिन  )                

हरा चारा (किलोग्राम )


दाना मिश्रण (ग्राम /दिन )


सुबह 

शाम 

250 

200 

200 

------

----------

5-00     दो सप्ताह 

300 

300 

जितना खा सके 

50. 00 

10-00 तीस दिन बाद 

100 

150 

fजितना खा सके 

100. 00 

बच्चा 15 दिन के बाद हरा चारा खाना शुरू कर देता है। थोड़ा-थोड़ा हरा एवं सुखा चारा देने से उसके पेट का विकास तेजी से होता है। जबकि उसका बड़ा पेट (रूमेन) 3-4 महीने में विकसित हो जाता है। जब बच्चा चार महीने का हो जाय तो दूध बंद कर देना चाहिए एवं दाना मिश्रण तथा हरा चारा देना चाहिए।
बकरियों के लिए आहार - बकरे एवं बकरियों को अपने शरीर भार का 4-6 प्रतिशत शुष्क आहार की आवश्यकता होती है। अगर बकरी का वजन 20 किग्रा हो तो 600 ग्राम सुखी घास  2.5-3.0 किग्रा हरा चारा  200-350 ग्राम दाना की आवश्यकता होगी। इसके बाद प्रति 1.00 किग्रा वजन पर 30 ग्राम सुखी घास एवं 10 ग्राम दाना तथा 150 ग्राम हरी घास की दर से मात्रा बढ़ाते रहना चाहिए। इसके साथ ही प्रत्येक बकरी एवं बच्चों को 10-30 ग्राम खनिज तत्व एवं 10 ग्राम नमक देना चाहिए।
 अगर बकरे/बकरियों को चराई पर पाला जा रहा हो तो 7-8 घंटा चराने पर उनका पेट भर जाता है उसके साथ ही वजन की अनुसार (15 ग्राम दाना/ किग्रा शरीर भार पर) 150-300 ग्राम दाना चराने के बाद देने देने से उनका वजन तेजी से बढ़ता है।
गर्भवती बकरी का आहार -बकरी को गर्भधारण करने के 3.5 महीने तक विशेष ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन उसके बाद पौष्टिक दाना मिश्रण जिसमें पाच्य प्रोटीन की मात्रा 15-16 प्रतिशत हो वजन के हिसाब से 300-500 ग्राम रोज देना चाहिए इसके बाद दलहनी हरा चारा (लोबिया/ऊर्द/मूंग)  भरपेट खिलाना चाहिए। जिससे की बच्चों को दूध पीने के लिए पर्याप्त मत्रा में मिल सके।
प्रगतिशील पशुपालकों को चाहिए कि 2 महीने तक बच्चों को दूध की पुरी मात्रा, दाने की पुरी मात्रा, दलहनी हरा चारा सबको साथ मिलाकर खिलाना चाहिए इस तरह से बकरी के बच्चों को खिलाया जाय तो 6-7 महीने में 15-20 किग्रा वजन प्राप्त कर लेगे।
बकरों के लिए फिनिशर राशन - बाजार में बेचने से पहले मांस को गुणवत्ता युक्त बनाने के लिए फिनिशर राशन खिलाते है। फिनिशर राशन में वसा की मात्रा कम होती है। जिससे मांस की गुणवत्ता बढ़ जाती है।
दाना बनाने की विधि 

दाने का नाम

गर्भवती बकरी (किग्रा में)

फिनिशर राशन (किग्रा में)

बच्चों के लिए दाना (किग्रा में)

मक्का गेहूँ  

40 

6 0 

3 0 

चना 

.... 

.... 

2 0 

खली 

40 

.... 

3 0 

गेहूँ का चोकर 

16 

17 

16 

 खनिज तत्व 

3

नमक 

3

मटर चना ऊर्द/मूंग का छिलका

.... 

20 

.... 

योग 

100 

100 

100 

                         उपरोक्त से 100 कि.ग्रा. दाना तैयार हो जायेगा।

प्रबन्धन - आवास -वैसे तो बकरी आवास में रहना पसंद नही करती है लेकिन 10 X  15 मी0 के अहाते में पेड़ लगा हो एवं एक किनारे बरामदा/कमरा बना हो तो 100 बकरियों के लिये पर्याप्त जगह होगी।

सिंहरोधन - जब बच्चे 15 दिन की अवस्था में हो तो उनका सिंहरोधन करा देना चाहिए।

बधियाकरण - बच्चों को मांस उत्पादन के लिए पाला जा रहा हो तो एक महीने की उम्र में उनको बधिया करा देना चाहिए। इससे उनका वजन तथा मांस की गुणवत्ता बढ़ जाती है।

व्यायाम - आवास/फार्म पद्धति में पाली जाने वाली बकरियों को व्यायाम की आवश्यकता पड़ती है इसके लिये बकरियों को 1.0 किमी तक टहलाकर वापस बाड़े मंे रख देते हैं इस प्रकार उनका पाचन तंत्र एवं रक्त संचार सुचारू रूप से हो जाता है।

बकरियों के प्रमुख रोग -

(1) पी.पी.आर. - इस रोग में शरीर का तापक्रम 105.106ह्थ् तक हो जाता है बकरी को दस्त होने लगता है एवं नाक बहने लगती है। इस बीमारी का टीकारण ही सबसे अच्छा उपाय है।


(2) इन्टेरोटाँक्सीमिया - इस बीमारी में बकरी के पेट में तेज दर्द होता है एवं दस्त के साथ खुन आता है और बकरी अतिशीघ्र मर जाती है इस बीमारी का अगस्त माह में ही टीकारण सबसे अच्छा उपाय है।

एन्थै्रक्स, गलघोटू, क्षय रोग एवं संक्रामक गर्भपात का टीकाकरण ही कराना चाहिए।

परजीवी से बचाव - सभी स्तनधारियों में अन्तः एवं वाह्य परजीवी पाये जाते है।

(1) जूँ एवं किलनी - यह वाह्य परजीवी है जो त्वचा एवं बालों में पाये जाते है। शरीर में खुजलाहट पैदा करते है एवं इनके खून चुसने से त्वचा खुरदरी हो जाती है एवं शरीर में खून की कमी हो जाती है। नियमित रूप से बकरियों को मैलाथियान/साइथियोन/ बूटाक्स के घोल से नहलाना चाहिए। जूँ एवं किलनी का प्रकोप ज्यादा बढ़ जाने पर पशु चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए।

(2) मेन्ज या खुजली - बकरियों के खाल से बाल उड़ जाते है। खाल मोटी एवं कठोर हो जाती है, खुजली होती रहती है बालों को काटकर बीमारी की जगह को गरम पानी या साबुन से धोना चाहिए। सेविन/साइथियोन को बीमारी वाली जगह पर लगाना चाहिए। ज्यादा प्रकोप होने पर पशु चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए।

गोलकृमि, फीताकृमि, केचुआ एवं अमीबा - यह अन्तः परजीवी है जो पेट एवं आंतों में पाये जाते है। ये आहार के महत्वपूर्ण अवयव को खुद प्रयोग कर लेते है। जिससे पशु कमजोर हो जाता है। अगर इनकी संख्या पेट में बहुत ज्यादा हो जाती है तो उनके प्रकोप से पशु की मृत्यु हो जाती है।

कीडे़ की दवा बकरी के बच्चों को जन्म के 10वें दिन 20वें दिन एवं 30वें दिन के बाद हर महीने 4 महीने की अवस्था तक देना चाहिए। कीड़ों एवं डायरिया की वजह से बच्चों में मृत्यु दर 15-20 प्रतिशत तक पायी गयी है।

लीवर फ्लूक - तालाब के किनारें जहां घोघा पाये जाते है वहाँ इसके परजीवी होते है। बकरियाँ जब उन स्थानों पर चरती है तो उनके पेट में चारे के माध्यम से पहुँच जाते है। इनसे बचाव के लिये निक्लोसेमाइड या रेफाक्ससनाई ग्रुप की दवाईयों को देना चाहिए।

उपरोक्त परजीवियों से बचाव के लिए बरसात से पहले मई-जून के महीने एवं बरसात के बाद नवम्बर-दिसम्बर के महीनों में सभी बकरियों एवं बच्चों को कृमिनाशक दवा अवश्य पिलाना चाहिए।देश में बढ़ती हुई मांस की मांग को देखते हुए पूर्वांचल में बकरी पालन की असीम संभावनायें हैं । जिसको अपनाकर साधनहीन, भूमिहीन किसान एवं खेतिहर मजदूर अपनी आय में वृद्धि कर सकता है।




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