निज भाषा में शिक्षा की खुलती राहें
- अमित शाह – गृह मंत्री
आजादी के अमृत महोत्सव के वर्ष में 16 अक्टूबर का दिन स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा। यह दिन देश की शिक्षा व्यवस्था के पुनर्जागरण का था जब मध्यप्रदेश सरकार ने देश में सबसे पहले मेडिकल की शिक्षा हिंदी में आरम्भ करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा मात्रभाषा में शिक्षा के अभियान का पहला अध्याय लिखा. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा था, “भारतीय संस्कृति एक विकसित शत दल कमल की तरह है जिसकी प्रत्येक पंखुड़ी हमारी प्रादेशिक भाषाएँ हैं । किसी भी एक पंखुड़ी के नष्ट होने से कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। मैं चाहता हूँ कि प्रादेशिक भाषाएं रानी बन कर प्रांतों में विराजमान रहें एवं इनके बीच हिंदी मध्यमणि बन कर विराजती रहे I” गुरुदेव द्वारा कही गई यह बात, भारत की भाषा संस्कृति के सारतत्व को बताती हैं. इसी क्रम में युग चरण भारतेंदु हरिश्चंद जी जब ‘निज भाषा’ की बात करते हैं तो उसमें सभी भारतीय भाषाएं समाहित होती हैं. देश के दक्षिण छोर से उत्तर तथा पूरब छोर से पश्चिम तक की सभी भाषाएं हमारी अपनी भाषाएं हैं. भारत और भारतीयता की जड़ों में इन भाषाओं की महान परंपरा है. भाषा ही व्यक्ति को अपने देश, संस्कृति और मूल के साथ जोड़ती है.
ऐसे में हिंदी को लेकर भी हमें किसी पूर्वाग्रह के बिना यह समझना चाहिए कि हिंदी का किसी स्थानीय भाषा से कोई मतभेद नहीं है. हिंदी को लेकर यह एक भ्रान्ति अक्सर फैलाई जाती है कि ये स्थानीय भारतीय भाषाओं की विरोधी है। इस बात में बिलकुल भी सच्चाई नहीं है। हिंदी भारत की राजभाषा है और इसका किसी स्थानीय भाषा से कोई मतभेद नहीं है। हिंदी तो भारत की सभी भाषाओं की सखी है। मेरा मानना है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाओ को थोड़ा लचीला होना पड़ेगा। यदि अन्य भाषाओँ से कोई अंतर आता है तो उससे परहेज करने के स्थान पर उसे अपनी भाषा में समाहित करने का प्रयास होना चाहिए, ऐसा होने से सभी भाषाओँ का विकास अंतर्विरोध की जगह परस्पर समागम के साथ हो सकेगा।
कुछ लोगों में अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठताबोध का भाव ऐसा है और अक्सर अंग्रेजी जानने वाले व्यक्ति को ज्ञानी मान लिया जाता है। लेकिन सच तो यह है कि किसी भी भाषा का ज्ञान या बौद्धिक क्षमता से कोई संबंध नहीं होता। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। यदि मातृभाषा में शिक्षा मिले तो वह बौद्धिक क्षमता बेहतर ढंग से निखरती है और उसका सम्यक विकास होता है। वहीं अन्य भाषा में शिक्षा होने पर बौद्धिक क्षमता का सम्पूर्ण लाभ व्यक्ति को नहीं मिल पाता क्यूंकि चिंतन कोई भी बच्चा अपनी मात्र भाषा में सबसे अच्छा कर सकता है। जब प्राथमिक शिक्षा मात्रभाषा से परे किसी और भाषा में होती है तो उसके मौलिक चिंतन के विकास में बाधा उत्पन्न होती है. इसलिए मेरा मानना है कि अनुसन्धान और मात्रभाषा में शिक्षा पद्धति के बीच बहुत गहरा नाता होता है. इसीलिए आज हम शोध, विज्ञान, कला इत्यादि में अपनी क्षमता का सिर्फ 5% दोहन कर पा रहे है. वर्तमान प्रयासों से जब शिक्षा मात्रभाषा होगी और देश अपनी सम्पूर्ण बौद्धिक क्षमा का उपयोग कर पायेगा तो मेरा मानना है कि आत्मनिर्भर नए भारत की यात्रा को महत्वपूर्ण बल मिलेगा. इसीलिए दुनिया भर के शिक्षाविदों ने मात्रभाषा में शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है क्योंकि सोंच, संशोधन, विश्लेषण, अनुसन्धान और निष्कर्ष की प्रक्रिया हमारा हमारा मन मात्र भाषा में ही करता है.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा तथा विशेषज्ञों को जन-सामान्य एवं भारतीय भाषाओं से जोड़ने के पक्षधर थे। बापू ने कहा था, “भारतीय भाषाओं में पढ़े रसायन-शास्त्री, इंजीनियर और अन्य विशेषज्ञ देश के सच्चे सेवक होंगे। और ये सभी विशेषज्ञ विदेशी नहीं, बल्कि आम जनता की भाषा बोलेंगे। जो ज्ञान वे प्राप्त करेंगे, वह आम लोगों की पहुंच के अंदर होगा।” बापू की सोंच के अनुरूप मोदी सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति में प्राथमिक से लेकर तकनीकी और मेडिकल शिक्षा तक को मातृभाषाओँ में उपलब्ध कराने प्रयास किया जा रहा है। इसके अंतर्गत पहली बार अपनी निज भाषा हिंदी में एमबीबीएस की पढ़ाई शुरू करने वाला मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य बना है। नई शिक्षा निति के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का लक्ष्य सभी भारतीय भाषाओं में मेडिकल, इंजीनियरिंग और लॉ की उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने का है। इस दिशा में मोदी सरकार पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ प्रयास कर रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में आज देश आत्मनिर्भरता की राह पर बढ़ रहा है। ऐसे में, हमें समझना होगा कि आत्मनिर्भर शब्द सिर्फ उत्पादन, वाणिज्यिक संस्थाओं के लिए नहीं है बल्कि आत्मनिर्भर शब्द भाषाओं के बारे में भी उतना ही महत्व रखता है। आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी साकार होगा जब हमारी भाषाएँ मजबूत होंगीं। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर विशेष बल दिया है। सरकार के प्रयासों के परिणामस्वरूप अब शिक्षा क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को विशेष रूप से महत्व मिलने भी लगा है। आज आठ भाषाओं तमिल, तेलुगू, मलयाली, गुजराती, मराठी, बंगाली, हिंदी और असमिया में इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम का अनुवाद कराके मात्रभाषा में शिक्षा देने का प्रयास हो रहा है. नीट और यूजीसी द्वारा आयोजित परीक्षाएं भी 12 भाषाओं में देने की व्यवस्था की गई है। यह सभी तथ्य शिक्षा क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को मजबूती देने के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता को ही दर्शाते हैं।
उन्नीसवीं सदी में दादाभाई नौरोजी ने अंग्रेजों द्वारा भारत के धन को विदेश ले जाने को ‘ड्रेन ऑफ़ वेल्थ’ के रूप में परिभाषित किया था। आज इक्कीसवीं सदी में स्थिति ‘ड्रेन ऑफ़ ब्रेन’ की हो गई है। जो विदेशी ताकतें तब ‘ड्रेन ऑफ़ वेल्थ’ के जरिये हमारा धन ले जा रही थीं, वही ताकतें आज ‘ब्रेन ड्रेन’ के द्वारा हमारे युवाओं के दिमाग को विदेशी भाषा की पढ़ाई के जरिये ले जाने में लगी हैं। यदि हमारे बच्चो को मात्रभाषा में शिक्षा के अवसर मिलेंगे तो ‘ब्रेन ड्रेन’ की यह स्थिति ‘ब्रेन गेन’ के रूप में बदलने लगेगी। अब देश के युवाओं के लिए उनकी मातृभाषा सहित अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था की जाने लगी है, जिससे उनका दिमाग किसी विदेशी भाषा का गुलाम होने के बजाए देश की भाषा में खुलकर सोचे-समझे और अपनी चिंतन और अनुसन्धान शक्ति को बढ़ाते हुए अपना विकास कर सकेंगे।
भारतीय जनता पार्टी को जब भी अवसर मिला है, हमने भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने का काम किया है। गुलामी का कालखंड बीतने के बाद भी भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों में लंबे समय तक भारतीय भाषाओं को लेकर एक प्रकार की लघुताग्रंथी पनपती रही थी। देश के नेता विदेशी मंचों पर अंग्रेजी में भाषण देते थे, परंतु, भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी जी को बतौर विदेश मंत्री जब अवसर मिला तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के मंच से हिंदी में भाषण देकर भारतीय भाषा को गौरव प्रदान किया। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अटल जी की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक मंचों पर हिंदी में भाषण देते हैं। मोदी जी के हिंदी में भाषण देने से वैश्विक स्तर पर तो भारतीय भाषा को पहचान मिलती ही है, भारतीयों के आत्मविश्वास में भी वृद्धि होती है।
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की राहें खुल रही हैं, जो कि हमारी भाषाओं के विकास में तो लाभप्रद होगी ही, देश के छात्रों की अनुसंधान क्षमता में भी गुणात्मक वृद्धि होगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि युगों-युगों तक भारत अपनी भाषाओं को संभालकर और संजोकर रखेगा तथा उन्हें लचीला व लोकोपयोगी बनाते हुए हम उनके विकास को नए आयाम देते रहेंगे।